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जलती हुई धूप में चला जा रहा था——कुछ खबर न थी, किधर। सहसा रेल की सीटी सुनकर वह चौंक पड़ा। अरे ! मैं इतनी दूर निकल आया ! रेलगाड़ी सामने खड़ी थी। उसे उस पर बैठ जाने की प्रबल इच्छा हुई, मानों उसमें बैठते ही वह सारी बाधाओं से मुक्त हो जायगा। मगर जेब में रुपये न थे। उँगली में अंगुटी पड़ी हुई थी। उसने कुलियों के जमादार को बुलाकर कहा——कहीं यह अँगूठी बिकवा सकते हो? एक रुपया तुम्हें दूँगा। मुझे गाड़ी में जाना है। रुपये लेकर घर से चला था, पर मालूम होता है, कहीं गिर गये ! फिर लौटकर जाने में गाड़ी न मिलेगी और बड़ा भारी नुकसान हो जायेगा।

जमादार ने सिर से पाँव तक देखा, अंगूठो ली, और स्टेशन के अन्दर चला गया। रमा टिकट घर के सामने टहलने लगा। आँखें उसी ओर लगी हुई थी। दस मिनट गुजर गये और जमादार का कहीं पता नहीं। अंगूठी लेकर कहां गायब तो नहीं हो जायगा? स्टेशन के अन्दर जाकर उसे खोजने लगा। एक कुली से पूछा। उसने पूछा——जमादार का नाम क्या है? रमा ने जबान दांतों से काट ली। नाम तो पूछा ही नहीं। बतलाये क्या? इतने में गाड़ी ने सीटी दी, रमा अधीर हो उठा। समझ गया, जमादार ने चकमा दिया। बिना टिकट लिये ही गाड़ी में जा बैठा। मन में निश्चय कर लिया, साफ कह दूँगा, मेरे पास टिकट नहीं है। अगर उतरना भी पड़ा, तो यहाँ से दस-पाँच कोस तो चला ही जाऊँगा।

गाड़ी चल दी तो उस वक्त रमा को अपनी दशा पर रोना आ गया। हाय, न जाने उसे कभी लौटना नसीब भी हो या नहीं। फिर ये सुख के दिन कहाँ मिलेंगे? यह दिन तो गये, हमेशा के लिये गये। इसी तरह सारी दुनिया से मुंह छिपाये, वह एक दिन मर जायगा। कोई उसकी लाश पर आंसू बहाने वाला भी न होगा। घरवाले भी रो-धोकर चुप ही रहेंगे। केवल थोड़े-से संकोच के कारण उसकी यह दशा हुई। उसने शुरू ही से जालपा से अपनी सच्ची हालत कह दो होती, तो आज उसे मुंह पर कालिख लगा- कर क्यों भागना पड़ता? मगर कहता कैसे? वह अपने को अभागिनी न समझने लगती? कुछ न सही; कुछ दिन तो उसने जालपा को सुखी रखा। उसकी लालसाओं की हत्या तो न होने दी। रमा के संतोष के लिए अब इतना ही काफ़ी था।

ग़बन
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