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रमा०——हाँ, दादा, है तो।

देवी०——मगर हिम्मत न होगी।

रमा०——बहुत ठीक कहते हो दादा। बड़े कम हिम्मत है ! जब से विवाह हुआ, अपनी लड़की तक को तो बुलाया नहीं।

देवी०——समझ गया भैया, वहीं दुनिया का दस्तुर है। बेटे के लिए कहीं चोरी करें, भीख मांगें, बेटी के लिए घर में कुछ है ही नहीं।

तीन दिन से रमा को नींद न आयी थी। दिन-भर रुपये के लिए मारा-मारा फिरता, रात-भर चिन्ता में पड़ा रहता। इस वक्त बातें करते-करते उसे नींद आ गयी। गरदन झुकाकर झपकी लेने लगा। देवीदीन ने तुरन्त अपनी गठरी खोली, उसमें से एक दरी निकाली और तरूत पर बिछाकर बोला——तुम यहाँ आकर लेट रहो भैया, मैं तुम्हारी जगह पर बैठ जाता हूँ।

रमा लेटे रहा। देवीदीन बार-बार उसे स्नेह-भरी आँखों से देखता था,मानो उसका पुत्र कहीं परदेश से लौटा हो।

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जब रमा कोठे से धम्-धम् नीचे उतर रहा था, उस वक्त जालपा को इसकी जरा भी शंका न हुई कि वह घर से भागा जा रहा है। पत्र तो उसने पढ़ ही लिया था। जो ऐसा झुंझला रहा था कि चलकर रमा को खूब खरी खरी सुनाऊँ। मुझसे यह छल-कपट ! पर एक ही क्षण में उसके भाव बदल गये। कहीं ऐसा तो नहीं हुआ, सरकारी रुपये खर्च कर डाले हों। यही बात है। रतन के रुपये सराफ को दिये होंगे। उस दिन रतन को देने के लिए शायद वे सरकारी रुपये उठा लाये थे। यह सोककर उसे फिर क्रोध आया— यह मुझसे इतना परदा क्यों करते हैं। क्यों मुझसे बढ़ चढ़कर बातें करते थे? क्या मैं इतना भी नहीं जानती कि संसार में अमीर गरीब दोनों ही होते है? क्या सभी स्त्रियाँ गहनों से लदी रहती हैं? गहने न पहनना क्या कोई पाप है? जब और जरूरी कामों से रुपये बचते हैं, वो गहने भी बन जाते है। पेट और तन काटकर, चोरी या बेईमानी करके तो गहने नहीं पहने जाते ! क्या उन्होंने मुझे ऐसी गयी-गुजरी समझ लिया?

उसने सोचा, रमा अपने कमरे में होगा, चलकर पूछूँ, कौन-कौन से गहने

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