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डाने लगा। कहाँ चले गये? वह दफ्तर से बिना घर आये कही बाहर न जाते थे। अगर किसी मित्र के घर जाते, तो क्या अब तक न लौटते? मालूम नहीं जेब में कुछ है भी या नहीं। बेचारे दिन भर से न मालूम कहाँ भटक रहे होंगे। वह फिर पछताने लगी कि उनका पत्र पढ़ते ही उसने क्यों न हार निकालकर दे दिया? क्यों दुबिवे में पड़ गयी? बेचारे शर्म के मारे घर न आते होंगे। कहाँ जाय ! किससे पूछे?

चिराग जल गये, तो उससे न रहा गया। सोचा, शायद रतन से कुछ पता चले। उसके गले पर गयी तो मालूम हुआ, आज तो वह इधर आये ही नहीं।

जालपा ने उन सभी पार्कों और मैदानों को छान डाला, जहाँ रमा के साथ वह बहुधा घूमने जाया करती थी; और नौ बजते-बजते निराश लौट आयी। अब तक उसने अपने आँसुओ को रोका था, लेकिन घर में कदम रखते ही जब उसको मालूम हो गया कि अब तक यह नहीं आये, तो वह हताश होकर बैठ गयी। उसकी यह शंका अब दृढ़ हो गयी कि वह जरूर कहीं चले गये। फिर भी कुछ आशा थी कि शायद मेरे पीछे आये हों और चले गये हों। जाकर रामेश्वरो से पूछा—वह घर आये थे, अम्माजी?

रामेश्वरी-यार दोस्तों में बैठे कहीं गप-शप कर रहे होंगे ! पर तो सराय है। दस बजे घर से निकले थे, अभी तक पता नहीं।

जालपा——दातर से घर पाकर तब कहीं जाते थे। आज तो श्राये ही नहीं। कहिए तो गोपी बाबू को भेज दें, जाकर देखें, कहाँ रह गये।

रामेश्वरी——लड़के इस वक्त कहाँ देखने जायेंगे। उनका क्या ठीक है। थोड़ी देर और देख लो, फिर खाना जलाकर रख देना। कोई कहाँ तक। इन्तजार करे!

जालपा ने इसका कुछ जवाब न दिया। दफ्तर की कोई बात उसने न कही। रामेश्वरी सुनकर घबड़ा जाती और उसी वक्त रोना पोटना मच जाता। वह ऊपर जाकर लेट गयी, और अपने भाग्य पर रोने लगी। रह-‌रहकर चित्त ऐसा बिकल होने लगा, मानो कलेजे में शूल उठ रहा हो। बार-

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