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रामेश्वरी——तो मैं लालाजी को जगाऊँ?

जालपा——इस वक़्त जगाकर क्या कीजिएगा? आप चलकर कुछ खा लीजिए न।

रामेश्वरी——मुझसे अब कुछ न खाया जायेगा। ऐसा मनमौजी लड़का है कि कुछ कहा न सूना, न जाने कहाँ जाकर बैठ रहा। कम-से-कम कहला तो देता कि मैं इस वक्त न आऊँगा।

रामेश्वरी फिर लेट रही, मगर जालपा उसी तरह बैठी रही। यहाँ तक कि सारी रात गुजर गयी-पहाड़-सी रात जिसका एक-एक पल एक-एक वर्ष के समान कट रहा था !

२३

एक सप्ताह हो गया, रमा का कहीं पता नहीं। कोई कुछ कहता है,कोई कुछ। बेचारे रमेश बाबू दिन में कई-कई बार आकर पूछ जाते हैं।तरह-तरह के अनुमान हो रहे हैं। केवल इतना ही पता चलता है कि रमानाथ ग्यारह बजे रेलवे स्टेशन की ओर गये थे। मुन्शी दयानाथ का सवाल है, यद्यपि वे इसे स्पष्ट रूप से प्रकट नहीं करते, कि रमा ने आत्म हत्या कर ली। एसी दशा में यही होता है। इसकी कई मिसालें उन्होंने खुद आँखों से देखी है। सास और ससुर दोनों ही जालपा पर सारा इलज़ाम थोप रहे है। साफ़-साफ़ कह रहे है कि इसी के कारण उसके प्राण गये। इसने उसका नाखो दान कर दिया। पूछो, थोड़ी-सी तो आपकी आमदनी फिर तुम्हें रोज सैर-सपाटे और दावत-तबाजे' को क्यों सूझती थी? जालपा पर किसी को दया नहीं आती। कोई उसके आँसू नहीं पोंछता। केवल रमेश बाबू उसको तत्परता और सदबुध्दि की प्रशंसा करते हैं, लेकिन मुन्शी दयानाथ की आँखों में उस कृत्य का कुछ मूल्य नहीं। आग लगाकर पानी लेकर दौड़ने से कोई निर्दोष नहीं हो जाता।

एक दिन दयानाथ वाचनालय से लौटे तो मुँह लटका हुआ था। एक तो उनको सूरत यो ही मुहर्रमी थी, उस पर मुँह लटका लेते थे तो कोई बच्चा भी कह सकता था कि इनका मिजाज बिगड़ा हुआ है।

रामेश्वरी ने पुछा——क्या है, किसी से कहीं बहस हो गयी क्या?

दयानाथ——नहीं जी, इन तकाज़ों के मारे हैरान हो गया। जिधर

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