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जाओ उधर लोग नोचने दौड़ते हैं। न जाने कितना कर्ज ले रखा है। आज तो मैंने साफ़ कह दिया, मैं कुछ नहीं जानता। मैं किसी का थानेदार नहीं हूँ। जाकर मेमसाहब से मांगो।

इसी वक्त जलपा आ पड़ी। ये शब्द उसके कानों में पड़ गये। इन सात दिनों में उसकी सूरत ऐसी बदल गयी थी, कि पहचानी न जाती थी। रोते-रोते आँखें सूज गयी थी। ससुर के ये कठोर शब्द सुनकर तिलमिला उठी, बोली——जी हाँ! आप उन्हें सीधे मेरे पास भेज दीजिए, मैं उन्हें या तो समझा दूंगी, या उनके दाम चुका दूँगी।

दयानाथ ने तीखे होकर कहा——क्या दे दोगी तुम, हजारों का हिसाब है। सात सौ एक ही सराफ़ के है। अभी के पैसे दिये है तुमने?

जलपा——उसके गहने मौजूद हैं, केवल दो-चार बार पहने गये हैं। वह आये तो मेरे पास भेज दीजिए। मैं उसकी चीजें वापस कर दूँगी। बहुत होगा, दस-पाँच रुपये तावान के ले लेगा!

यह कहती हुई ऊपर जा रही थी कि रतन आ गयी, और उसे गले से लगाती हुई बोली——क्या अब तक कुछ पता नहीं चला?

जलपा को इन शब्दों में स्नेह और सहानुभूति का एक सागर उमड़ता हुआ जान पड़ा। यह गैर होकर इतनी चिन्तित है, और यहाँ अपने ही सास और ससुर हाथ धोकर पीछे पड़े हुए हैं। इन अपनों से गैर ही अच्छे। आँखों में आंसू भरकर बोली—अभी तो कुछ पता नहीं चला, बहन।

रतन-यह बात क्या हुई, कुछ तुमसे तो कहा-सुनी नहीं है?

जलपा——जरा भी नहीं, कसम खाती हूँ। उन्होंने नोटों के खो जाने का मुझसे जिक्र ही नहीं किया। अगर इशारा भी कर देते तो मैं रुपये दे देती। जब वह दोपहर तक नहीं आये और मैं उन्हें खोजती हुई दफ्तर गयी तब मुझे मालुम हुआ, कुछ नोट खो गये हैं। उसी वक्त जाकर मैंने रुपये जमा कर दिये।

रतन——मैं तो समझती हूँ; किसी से आँखे लड़ गयी। दस-पांच दिन में आप पता लग जायगा। यह बात सच न निकले, तो जो कहो; जुर्माना दूँ !

जलपा ने घबरा कर पूछा——क्या तुमने कुछ सुना है?

रतन——नहीं, सुना तो नहीं; पर मेरा अनुमान है।

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