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जलपा——नहीं रतन, मैं इस पर जरा भी विश्वास नहीं करती। यह बुराई उनमें नहीं है, और चाहे जितनी बुराइयाँ हों। मुझे उन पर सन्देह करने का कोई कारण नहीं है।

रतन ने हँसकर कहा——इस कला में वे लोग निपुण होते हैं। तुम बेचारी क्या जानो।

जलपा दृढ़ता से बोली——अगर वह इस कला में निपुण होते हैं, तो हम भी हृदय को परखने में कम निपुण नहीं होती॓। मैं इसे नहीं मान सकती। अगर वह मेरे स्वामी थे, तो मैं उनकी स्वामिनी थी।

रतन——अच्छा चलो, कहीं घूमने चलती हो? चलो, तुम्हें कहीं घुमा लावें।

जलपा——नहीं, इस वक्त तो मुझे फुरसत नहीं है। फिर घरवाले यों ही प्राण लेने पर तुले हुए हैं, तब तो जीता ही न छोड़ेंगे। किधर जाने का विचार है?

रतन——कहीं नहीं, जरा बाजार तक जाना था।

जलपा——क्या लेना है?

रतन——जौहरियों की दूकान पर दो-एक चीज देखूँगी। बस, मैं तुम्हारी जेसा कंगन चाहती है। बाबूजी ने भी कई महीने के बाद रुपये लौटा दिये। अब खुद तलाश करूँगी!

जलपा——मेरे कंगन में ऐसे कौन से रूप लगे है। बाजार में उससे बहुत अच्छे मिल सकते हैं।

रतन—— मैं तो उसी नमूने को चाहती हूँ।

जलपा——उस नमूने का तो बना-बनाया मुश्किल से मिलेगा, और बनवाने में महीनों का झंझट। अगर सब्र न आता हो तो मेरा ही कंगन ले लो, मैं फिर बनवा लूँगी।

रतन ने उछलकर कहा——वहा!, तुम अपना कंगन दे दो तो क्या कहना है! मूसलों ढोल बजाऊँ ! छ: सौ का था न?

जलपा——हाँ, था तो छ: सौ का, मगर महीनों सराफ को दूकान की खाक छाननी पड़ी थी। जड़ाई तो खुद बैठकर करवायी थी। तुम्हारी खातिर दे दूँगी।

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