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जलपा ने कंगन निकालकर रतन के हाथों में पहना दिये। रतन के मुख पर एक विचित्र गौरव का आभास हुआ, मानो किसी कंगाल को पारस मिल गया हो। यही आत्मिक आनन्द की चरम सीमा है। कृतज्ञता से भरे हुए स्वर में बोली——तुम जितना कहो, उतना देने को तैयार हूँ। तुम्हें दबाना नहीं चाहती। तुम्हारे लिए यही क्या कम है कि तुमने इसे मुझे दे दिया। मगर एक बात है। अभी में सब रुपये न दे सकूँगी, अगर दो सौ रुपये फिर दे दूँ तो कुछ हरज है?

जलपा ने साहसपूर्वक कहा——कोई हरज नहीं, जी चाहे कुछ भी मत दो।

रतन——नहीं, इस वक्त मेरे पास चार सौ रुपये है। ये मैं दिये जाती हूँ। मेरे पास रहेंगे तो किसी दूसरी जगह खर्च हो जायेंगे। मेरे हाथ तो रुपये टिकते ही नहीं, करूँ क्या। जब तक खर्च न हो जाये, मुझे एक चिन्ता-सी लगी रहती है, जैसे सिर पर कोई बोझ सवार हो।

जलपा ने कंगन की डिबिया उसे देने के लिए निकाली तो उसका दिल मसोस उठा। उसकी कलाई पर यह कंगन देखकर रमा कितना खुश होता था! आज वह होता तो क्या यह चीज़ इस तरह जलपा के हाथ से निकल जाती! फिर कौन जाने कंगन पहनना उसे नसीब भी होगा या नहीं। उसने बहुत जब्त किया पर आँसू निकल ही आये।

रतन उसके आँसू देखकर बोली——इस वक्त रहने दो बहन, फिर ले लूंगी, जल्दी ही क्या है।

जलपा ने उसकी ओर बक्सा बढ़ाकर कहा——क्यों क्या मेरे आँसू देखकर? तुम्हारी खातिर से दे रही हूँ। नहीं यह मुझे प्राणों से भी प्रिय था। तुम्हारे पास इसे देखूँगी तो मुझे तस्कीन होती रहेगी। किसी दूसरे को मत देना, इतनी दया करना।

रतन-किसी दूसरे को क्यों देने लगी। इसे तुम्हारी निशानी समझूँगी। आज बहुत दिन के बाद मेरे मन की अभिलाषा पूरी हुई। केवल दुःख इतना ही है कि बाबूजी अब नहीं हैं। मेरा मन कहता है कि वह जल्दी ही आयेंगे। यह मारे शर्म के चले गये हैं और कोई बात नहीं। वकील साहब को भी यह सुनकर दुःख हुआ। लोग कहते हैं——वकीलों का हृदय कठोर

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