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जालपा ने निःसंकोच होकर कहा—— रतन के हाथ कंगन बेच दिया।दयानाथ उसका मुँह ताकने लगे।

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एक महीना गुजर गया। प्रयाग के सबसे अधिक छपनेवाले दैनिक पत्र में एक नोटिस निकल रहा है, जिसमें रमानाथ के घर लौट आने की प्रेरणा दी गयी है, और उनका पता लगा लेने वाले आदमी को पाँच सौ रुपये इनाम देने का बचन दिया गया है: मगर अभी तक कोई खबर नहीं आयी। जालपा चिन्ता और दुःख से घुलती चली जाती है। उसकी दशा देखकर दयानाथ को भी उस पर दया आने लगी। आखिर एक दिन उन्होंने दीनदयाल को लिखा——आप आकर बहू को कुछ दिनों के लिए लें जाइये दीनदयाल यह समाचार पाते ही घबड़ाये हुए आये; पर जालपा ने मैके जाने से इनकार कर दिया।

दीनदयाल ने विस्मित होकर कहा——क्या यहाँ पड़े-पड़े प्राण देने का विचार है?

जालपा ने गम्भीर स्वर में कहा—— अगर प्राणों को इसी भाँति जाना होगा, तो कौन रोक सकता है। मैं अभी नहीं मरने की दादाजी, सच मानिए। अभागिनों के लिए वहाँ भी जगह नहीं।

दीनदयाल——आखिर चलने में हरज ही क्या है। शहजादी और बसन्ती दोनों आयी हुई हैं। उनके साथ हँस-बोलकर जी बहलता रहेगा।

जालपा——यहाँ लाला और अम्माजी को अकेली छोड़ जाने को मेरा जी नहीं चाहता। जब रोना ही लिखा है, तो रोऊँगी।

दीनदयाल——यह बात क्या हुई? सुनते हैं, कुछ कर्ज हो गया था। कोई कहता है——सरकारी रकम खा गये थे।

जालपा——जिसने आपसे यह कहा, उसने सरासर झूठ कहा।

दीनदयाल——तो फिर क्यों चले गयें।

जालपा——यह मैं बिलकुल नहीं जानती। मुझे बार-बार खुद यही शंका होती है।

दीनदयाल——लाला दयानाथ से तो झगड़ा नहीं हुआ?

जालपा——लालाजी के सामने तो वह सिर तक नहीं उठाते, पान तक

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