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नहीं खाते, भला झगड़ा क्या करेंगे। उन्हें घूमने का शौक था। सोचा होगा——यों तो कोई जाने न देगा,चलो भाग चलें।

दीनदयाल——शायद ऐसा ही हो। कुछ लोगों को इधर-उधर भटकने की सनक होती है। तुम्हें यहाँ जो तकलीफ हो, मुझसे साफ़-साफ़ कह दो। खरच के लिए कुछ भेज दिया करूँ?

जालपा ने गर्व से कहा—— मुझे कोई तकलीफ नहीं है, दादाजी। आपकी दया से किसी चीज की कमी नहीं है।

दयानथ और रामेश्वरी, दोनों ने जालपा को समझाया; पर वह जाने पर राजी न हुई। तब दयानाथ झुंंझलाकर बोले- यहाँ दिन भर पड़े-पड़े रोने से तो अच्छा है!

जालपा——क्या वह कोई दूसरी दुनिया है? क्या मैं वहाँ जाकर कुछ और हो जाऊँगी? और फिर रोने से क्यों डर? जब हँसना था, तब हँसती थी; जब रोना है, तब रोऊँगी। वह काले कोसों चले गये हों, पर मुझे तो हर- क्षण यहीं बैठे दिखायी देते हैं। यहाँ वे स्वयं नहीं हैं, पर घर की एक-एक चीज में बसे हुए हैं। यहाँ से जाकर तो मैं निराशा से पागल हो जाऊँगी।

दीनदयाल समझ गये, यह अभिमानिनी अपनी टेक न छोड़ेगी। उठकर बाहर चले गये। संध्या समय चलते वक्त, उन्होंने पचास रुपये का एक नोट जालपा की तरफ बढ़ाकर कहा——इसे रख लो, शायद कोई जरूरत पड़े।

जालपा ने सिर हिलाकर कहा——मुझे इसकी बिल्कुल जरूरत नहीं है, दादाजी। हाँ इतना चाहती है कि आप मुझे आशीर्वाद दें। सम्भव है, आपके आशीर्वाद से मेरा कल्याण हो।

दीनदयाल की आँखों में आँसू भर आये, नोट वहीं चारपाई पर रखकर बाहर चले आये।

क्वार का महीना लग चुका था। मेध के जल-शून्य टुकड़े कभी-कभी'आकाश में दौड़ते नजर आ जाते थे। जालपा छत पर लेटी हुई उन मेघ- खण्डों की किलीलें देखा करती चिन्ता व्यथित प्राणियो के लिये इससे अधिक मनोरंजन की वस्तु ही कौन है? बादल के टुकड़े भाँति-भाँति के रंग बदलते, भाँति-भाँति के रूप भरते। कभी आपस में प्रेम से मिल जाते. कभी रूठकर अलग-अलग हो जाते, कभी दौड़ने लगते, कभी ठिठक जाते। जालपा

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