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जालपा——नहीं यह न होगा। पहले कार को बढ़ाओ।

रतन ने हारकर कार को बढ़ाया और बोली——अच्छा अब तो बताओगी।

जालपा ने उलाहने के भाव से कहा—— इतनी बात तो तुम्हें खुद ही समझ लेनी चाहिए थी ! मुझसे क्या पूछती हो। अब ये चीजें मेरे किस काम की हैं। इन्हें देख-देखकर मुझे दुःख होता है। जब देखने वाला ही न रहा,तो इन्हें रखकर क्या करूँ।

रतन ने एक लम्बी सांस खींची और जालपा का हाथ पकड़कर काँपते हुए स्वर में बोली——बाबुजी के साथ तुम यह बड़ा अन्याय कर रही हो बहन!वह कितनी उमंग से इन्हें लाये होंगे। तुम्हारे अंगों पर इनकी शोभा देखकर कितने प्रसन्न हुए होंगे। एक-एक चीज उनके प्रेम की एक-एक स्मृति है। उन्हें गंगा में बहाकर तुम उस प्रेम का घोर अनादर कर रही हो!

जालपा विचार में डूब गयी, मन में संकल्प-विकल्प होने लगा; किन्तु एक ही क्षण में वह फिर संभल गयी। बोली——यह बात नहीं है बहन, जब तक ये चीजें मेरी आँखों से दूर न हो जायेंगी, मेरा चित्त शान्त न होगा। इसी विलासिता ने मेरी यह दुर्गति की है। यह मेरे विपत्ति की गठरी है, प्रेम की स्मृति नहीं। प्रेम तो मेरे हृदय पर अंकित है।

रतन——तुम्हारा हृदय बड़ा कठोर है जालपा, मैं तो शायद ऐसा न कर सकती।

जालपा——लेकिन मैं तो इन्हें अपनी विपत्ति का मूल समझती हूँ।

एक क्षण चुप रहने के बाद वह फिर बोली——उन्होंने मेरे साथ बड़ा अन्याय किया है, बहन। जो पुरुष अपनी स्त्री से कोई परदा रखता है, मैं समझती हूँ, वह उससे प्रेम नहीं करता। मैं उनकी जगह पर होती तो यों तिलांजलि देकर न भागती। अपने मन की सारी व्यथा कह सुनाती, और जो कुछ करती, उनकी सलाह से करती। स्त्री और पुरुष में दुराव कैसा?

रतन ने गम्भीर मुस्कान के साथ कहा—— ऐसे पुरूष तो बहुत कम होंगे जो स्त्री से अपना दिल खोलते हों। जब तुम स्वयं दिल में चोर रखती हो, तो उनसे क्यों आशा रखती हो कि वे तुमसे कोई परदा न रखें। तुम ईमान से कह सकती हो कि तुमने उनसे परदा नहीं रखा?

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