पृष्ठ:ग़बन.pdf/१६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

की थी, ऐसा चढ़ाव मैंने आज तक नहीं देखा था। अब तो तेरी सब साथ पूरी हो गयी?

जालपा ने अपनी लम्बी-लम्बी पलकें उठाकर उसकी ओर ऐसे नेत्रों से देखा, मानों जीवन में अब उसके लिए कोई आशा नहीं है-हाँ बहन, सब साध पूरी हो गयी!

इन शब्दों में कितनी अपार मर्मान्तक वेदना भरी हुई थी, इसका अनुमान तीनों युवतियों में कोई भी न कर सकों! तीनों कुतूहल से उसकी और ताकने लगी, मानों उसका प्राशय उनकी समझ में न माया हो।

बासन्ती ने कहा--जी चाहता है, कारीगर के हाथ चूम लूं।

शहजादी बोली-चढ़ाव ऐसा ही होना चाहिए कि देखनेवाले फड़क उठे।

वासन्ती-तुम्हारी सास बड़ी चतुर जान पड़ती है, कोई चीज नहीं छोड़ी।

जालपा ने मुंह फेरकर कहा-~-ऐसा ही होगा।

राधा-और तो सब कुछ है, केवल चन्द्रहार नहीं है।

शहजादी--एक चन्द्रहार के न होने से क्या होता है बहन, उसको जगह गुलबन्द तो है।

जालपा ने बक्रोक्ति के भाव से कहा-हाँ, देह में एक माँख के न होने से क्या होता है! और सब अंग होते ही है, आँखें हुई तो क्या, न हुई तो क्या!

बालकों के मुंह से गम्भीर बातें सुनकर जैसे हमें हंसी आ जाती है, उसी तरह जालपा के मुंह से यह लालसा-भरी हुई बातें सुनकर, राधा और वासन्ती अपनी हँसी न रोक सकी। ही शहजादी को हँसी न आयी। यह प्राभूषणलालसा उसके लिए हँसने की बात नहीं, रोने की बात थी। कृत्रिम सहानुभूति दिखाती हुई बोली---सब न जाने कहाँ के जंगली हैं कि और सब चीजें तो लाये, चन्द्रहार न लाये, जो सब गहनों का राजा है। लाला अभी आते है तो पूछती हूँ कि तुमने यह कहाँ की रीति निकाली है-ऐसा अनर्थ भी कोई करता है।

राधा और वासन्ती दिल में कांप रही थी कि जालपा कहीं ताल न जाय। उनका बस चलता, तो शहजादी का मुँह बन्द कर देती, बार-बार उसे चुप

गबन
११