पृष्ठ:ग़बन.pdf/१६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

जालपा ने सकुचाते हुए कहा——मैंने तो अपने मन में परदा नहीं रखा।

रतन ने जोर देकर कहा——झूठ बोलती हो, बिल्कुल झूठ ! अगर तुमने विश्वास किया होता, तो वे भी खुलते।

जालपा इस आक्षेप को अपने सिर से न टाल सकी। उसे आज ज्ञात हुआ कि कपट का आरम्भ पहले उसी की ओर से हुआ।

गंगा का तट आ पहुँचा। कार रुक गयी। जालपा उतरी और बेग को उठाने लगी किन्तु रतन ने उसका हाथ हटाकर कहा——नहीं, मैं इसे न ले जाने दूँगी। समझ लो कि डूब गये।

जालपा——ऐसा कैसे समझ लूँ?

रतन——मुझ पर इतनी दया करो, बहन के नाते।

जालपा——बहन के नाते तुम्हारे पैर धो सकती हूँ, मगर इन काँटों को हृदय में नहीं रख सकती।

रतन ने भौहें सिकोड़कर कहा——किसी तरह न मानोगी?

जालपा ने स्थिर भाव से कहा——हाँ किसी तरह नहीं!

रतन ने विरक्त होकर मुंह फेर लिया। जालपा ने बैग उठा लिया, और तेजी से घाट से उतरकर जल-तट तक पहुंच गयी;फिर बेग को उठाकर पानी में फेंक दिया। अपनी निर्बलता पर विजय पाकर उसका मुख प्रदीप्त हो गया। आज उसे जितना गर्व और आनन्द हुआ, उतना इन चीजों को पाकर भी न हुआ था। उन असंख्य प्राणियों में जो इस समय स्नान-ध्यान कर रहे थे, कदाचित किसी को अपने अन्तःकरण में प्रकाश का ऐसा अनुभव न हुआ होगा। मानो प्रभात की सुनहरी ज्योति उसके रोम-रोम में व्याप्त हो रही है। जब वह स्नान करके ऊपर आयी, तो रतन ने पूछा——डुबा दिया?

जालपा——हाँ।

रतन——बड़ी निष्ठुर हो!

जालपा——यही निष्ठुरता मन पर विजय पाती है। अगर कुछ दिन पहले निष्ठुर हो जाती तो यह दिन क्यों आता!

कार चल पड़ी।

२५

रमानाथ को कलकत्ते आये हुए दो महीने से ऊपर हो गये हैं। वह अभी

ग़बन
१५५