पृष्ठ:ग़बन.pdf/१६६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

निर्दयता इसकी मिल में होती है, और कहीं नहीं होती। आदमियों को हंटरों से पिटवाया है, हंटरों से! चरबी मिला धी बेचकर इसने लाखों कमा लिये। कोई नौकर एक मिनट को भी देर करे तो तुरन्त तलब काट लेता है। अगर साल में दो-चार हजार दान न करे तो पाप का धन पचे कैसे ! धर्म-कर्म वाले ब्राह्मण तो उसके द्वार पर झांकते भी नहीं। तुम्हारे सिवा वहाँ और कोई पंडित था ?

रमा ने सिर हिलाया।

'कोई जाता ही नहीं। हाँ लोभी-लम्पट पहुँच जाते हैं। जितने पुजारी देखे, सबको पत्थर ही पाया। पत्थर पूजते-पूजते इनके दिल भी पत्थर हो जाते हैं। इसके तीन तो बड़े-बड़े धर्मशाले है; मुदा है पाखंडी। आदमी चाहे,और कुछ न करे, मन में दया बनाये रखे। यही सौ धर्म का एक धर्म है।

दिन की रखी हुई रोटियाँ खाकर जब रमा कम्बल मोड़कर लेटा, तो उसे बड़ी ग्लानि होने लगी। रिश्वत में उसने हजारों रुपये मांगे थे; पर कभी एक क्षण के लिये भी उसे ग्लानि न आयी थी। रिश्वत बुद्धि से, कौशल से पुरुषार्थ से मिलती है। दान पौरुषहीन, कर्महीन या पाखण्डियो का आधार है। वह सोच रहा था— में अब इनता दीन हूँ कि भोजन और वस्त्र के लिए मुझे दान लेना पड़ता है। वह देवीदीन के घर दो महीने से पड़ा हुआ था,पर देवीदीन उसे भिक्षुक नहीं, मेहमान समझता था। उसके मन में कभी दान का भाव आया ही न था। रमा के मन में ऐसा उद्वेग उटा कि इसी दम थाने में जाकर अपना सारा वृत्तान्त कह सुनाये। यही न होगा, दो-तीन साल की सजा हो जायगी; फिर तो यों प्राण सूली पर न टंगे रहेंगे। कहीं डूब ही क्यों न मरूं। इस तरह जीने से फायदा ही क्या ? न घर का हूँ, न घाट का। दुसरों का भार तो क्या उठाऊँगा, अपने ही लिए दूसरों का मुँह ताकता हूँ। इस जीवन से किसका उपकार हो रहा है। धिक्कार है मेरे जीने को!

रमा ने निश्चय किया, कल निशंक होकर काम की टोह में निकलूँगा। जो कुछ होना है, हो।

२६

अभी रमा मुँह-हाथ धो रहा था, कि देवीदीन प्राइमर लेकर आ पहुँचा और बोला-भैया, यह तुम्हारी अंगरेजी बड़ी विकट है। एस-आई-आर

ग़बन
१६१