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किया करता था। यह कानों के झूमके के लिए जान खा रही थी। कहती थी, सोने ही का लूँगी। इसका बाप चौधरी था ! मेवे की दूकान थी। मिजाज बुढ़ा हुआ था। मुझ पर प्रेम का नशा छाया हुआ था। अपनी आमदनी की डोंगे मारता रहता था कभी फूलों का हार लाता, कभी मिठाई, कभी अतर-फूलेल। सदर का हल्का था। जमाना अच्छा था। दूकानदारों से जो चीज़ मांग लेता, मिल जाती थी। आखिर मैंने एक मनोआर्डर पर झूठे दस्तखत बनाकर रुपये उड़ा दिये। कुल तीस रुपये थे। झूमके लाकर इसे दिये। इतनी खुश हुई कि कुछ न पूछो; लेकिन एक महीने में चोरी पकड़ ली गयी। तीस साल की सजा हो गयी। सजा काटकर निकला तो यहां भाग आया। फिर कभी घर नहीं गया। वहां मुंह केसे दिखाता। हां, घर पत्र भेज दिया। बुढ़िया खबर पाते ही चली आयी। यह सब कुछ हुआ; मगर गहनों से उसका पेट नहीं भरा। जब देखो, कुछ-न-कुछ बनता ही रहता है। एक चीज आज बनबायी, कल उसी को तुड़वाकर कोई दूसरी चीज बनवायी। यही तार चला जाता है। एक सोनार मिल गया है, मंजूरी में साग-भाजी ले जाता है। मेरी तो सलाह है, घर एक खत लिख दो। लेकिन पुलिस तो तुम्हारी टोह में होगी। कहीं पता मिल गया, तो काम बिगड़ जायगा। मैं न किसी से एक खत लिखवाकार भेज दूँ?

रमा ने आग्रहपूर्वक कहा——नहीं दादा ! दया करो। अनर्थ हो जायेगा। पुलिस से ज्यादा तो मुझे घर वालों का भय है।

देवी——घरवाले खबर पाते ही आ जायेंगे। यह चर्चा ही न उठेगी। उनकी कोई चिन्ता ही नहीं। डर पुलित ही का है।

रमा——मैं सज़ा से बिल्कुल नहीं डरता। तुमसे कहा नहीं, एक दिन मुझे वाचनालय में जान-पहचान की एक स्त्री दिखायी दी। हमारे घर बहुत आती-जाती थी। मेरी स्त्री से बड़ी मित्रता थी। एक बड़े वकील की पत्नी है।उसे देखते ही मेरी नानी मर गयी। ऐसा सिटपिटा गया कि उसकी ओर ताकने की हिम्मत न पड़ी। चुपके से उठकर पीछे के बरामदे में जा छिपा।अगर उस वक्त उससे दो-चार बातें कर लेता, तो घर का सारा समाचार मालूम हो जाता, और मुझे विश्वास है, कि वह इस मुलाकात को किसी से चर्चा भी न करती। मेरी पत्नी से भी न कहती; लेकिन मेरी हिम्मत न

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