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पड़ी। अब अगर मिलना भी चाहूँ, तो नहीं मिल सकता। उनका पता—ठिकाना कुछ भी तो नहीं मालूम।

देवो०—तो फिर उसी को क्यों नहीं एक चिट्ठी लिखते।

रमा०—चिट्टी तो मुझसे न लिखी जावेगी।

देवी०—तो कब तक चिट्टी न लिखोगे?

रमा०—देखा चाहिये।

देवी०—पुलिस तुम्हारी टोह में होगी।

देवीदीन चिता में डूब गया। रमा को भ्रम हुआ शायद पुलिस का भय इसे चिंंतित कर रहा है। बोला—— हाँ, इसकी शंका मुझे हमेशा बनी रहती है। तुम देखते हो, मैं दिन को बहुत कम घर से निकलता हूँ, लेकिन मैं तुम्हें अपने साथ नहीं घसीटना चाहता। मैं तो जाऊँगा ही, तुम्हें क्यों उलझन में डालूँ। सोचता हूँ, कहीं और चला जाऊँ किसी ऐसे गांव में जाकर रहूँ, जहाँ पुलिस की गन्ध भी न हो।

देवीदीन ने गर्व से सिर उठाकर कहा——मेरे बारे में तुम कुछ चिन्ता न करो भैया, यहाँ पुलिस से डरनेवाले नहीं है। किसी परदेशी को अपने घर ठहराना पाप नहीं। हमें क्या मालूम किसके पीछे पुलिस है ? यह पुलिस का काम है, पुलिस जाने। मैं पुलिस का मुखबिर नहीं, जासूस नहीं, गोइन्दा नहीं। तुम अपने को बचाये रहो, देखो भगवान् क्या करते है। हाँ, कहीं बुढ़िया से न कह देना, नहीं तो उसके पेट में पानी न पचेगा।

दोनों एक क्षण चुपचाप बैठे रहे। दोनों इस प्रसंग को इस समय बंद कर देना चाहते थे। सहसा देवीदीन ने कहा——क्यों भैया, कहीं मैं तुम्हारे घर चला जाऊँ। किसी को कानोंकान खबर न होगी। मैं इधर-उबर से सारा ब्योरा पूछ आऊँगा। तुम्हारे पिता से मिलूंगा, तुम्हारी माता को सामझाऊँगा, तुम्हारी घरवाली से बातचीत करूँगा। फिर जैसा उचित जान पड़े वैसा करना।

रमा ने मन-ही-मन प्रसन्न होकर कहा——लेकिन कैसे पूछोगें दादा, लोग कहेंगे न कि तुम्हें इन बातों से क्या मतलब।

देवीदीन ने ठट्टा मारकर कहा-मैया, इससे सहज तो कोई काम ही नहीं। एक जनेऊ गले में डाला और ब्राह्मण बन गये। फिर चाहे हाथ देखो,

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