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हो। यही मैंने भी सोचा था। भगवान करें, अभी कुछ दिन और जीऊँ। मेरा पहला सवाल यह होगा कि विलायती चीजों पर दुगुना महसूल लगाया जाय और मोटरों पर चौगुना। अच्छा, अब भोजन बनाओ। सांझ को चलकर कपडे़ दरजी को दे देंगे ! मैं भी तब तक खा लू'।

शाम को देवीदीन ने आकर कहा——चलो भैया, अब तो अंधेरा हो गया।

रमा सिर पर हाथ धरे बैठा हुआ था: मुख पर उदासी छायी हुई थी। बोला——दादा, मैं घर न जाऊँगा।

देवीदीन ने चकित होकर पूछा——क्यों क्या बात हुई ?

रमा की आंखें सजल हो गयीं : बोला——कौन-सा मुंह लेकर जाऊँ दादा ! मुझे तो डूब मरना चाहिए था।

यह कहते-कहते वह खुलकर रो पड़ा। वह वेदना जो अब तक मूछित पड़ी थी, शीतल जल के वह छीटे पाकर सचेत हो गयी; और उसके कन्दन ने 'रमा के सारे अस्तित्व को जैसे छेद डाला। इसी क्रन्दन के भय से वह उसे छेड़ता न था, उसे सचेत करने की चेष्टा न करता था, संयत विस्मति से उसे अचेत ही रखना चाहता था; मानो कोई दु:खिनी माता अपने बालक को इसलिए जगाते डरती हो कि तुरन्त खाने को मांगने लगेगा।

२७

कई दिनों के बाद एक दिन कोई ८ बजे रमा पुस्तकालय से लौट रहा था कि मार्ग में उसे कई युवक शतरंज के किसी नक्शे की बातचीत करते मिले। यह नक्शा वहाँ के एक हिन्दी दैनिक पत्र में छपा था और उसे हल करने वाले को पचास रुपये इनाम देने का वचन दिया गया था। नक्शा असाध्य-सा जान पड़ता था। कम-से-कम इन युवकों की बातचीत से ऐसा ही टपकता था। यह भी मालूम हुआ कि वहां के और भी कितने शतरंजबाजों ने इसे हल करने के लिए भरपूर ज़ोर लगाया पर कुछ पेश न पाया। अब रमा को याद आया कि पुस्तकालय में एक पत्र पर बहुत-से आदमी झुले हुए थे और उस नशे की नकल कर रहे थे। जो आता था, दो चार मिनट तक वह पत्र देख लेता था। अब मालूम हुआ, यह बात थी।

रमा का इनमें से किसी से भी परिचय न था; पर वह नकशा देखने के

ग़बन
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