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लिए इतना उत्सुक हो रहा था कि उससे बिना पूँछे न रहा गया। बोला——आप लोगों में से किसी के पास वह नक्शा है?

युवकों में एक कम्बलपोश आदमी को नक्शे की बात पूछते सुना तो समझे, कोई अताई होगा। एक के रुखाई से कहा——हाँ, है तो; मगर तुम देखकर क्या करोगे, यहां अच्छे-अच्छे गोते खा रहे है ! एकः महाशय, जो शतरंज में अपना सानो नहीं रखते, उसे हल करने के लिए सौ रुपये अपने पास से देने को तैयार है।

दुसरा युवक बोला——दिखा क्यो नहीं देते जो ? कौन जाने यही बेचारे हल कर लें, शायद इन्हीं की सूझ लड़ जाय।

इस प्रेरणा में सज्जनता नहीं, व्यंग्य था। उसमें वह भाव छिपा था, कि हमें दिखाने में कोई उज नहीं है, देखकर अपनी आंखों को तृप्त कर ली; मगर तुम जैसे उल्लू उसे समझ ही नहीं सकते, हल क्या करोंगे!

जान पहचान की एक दूकान में जाकर उन्होंने रमा को नक्शा दिखाया। रमा को तुरन्त याद आ गया, यह नक्शा पहले भी कहीं देखा है! सोचने लगा, कहां देखा है।

एक युवक ने चुटको ली—आपने तो हल कर लिया होगा?

दूसरा अभी नहीं किया तो एक क्षण में किये लेते हैं।

तीसरा-जरा दो-एक चाल बताइए तो?

रमा ने उत्तेजित होकर कहा—— यह मैं नहीं कहता कि मैं इसे हल कर ही लूंगा; मगर ऐसा नशा मैंने एक बार हल किया है और संभव है इसे भी हल कर लूँ। जरा कागज-पेंसिल दीजिए तो नकल कर लूं।

युवकों का अविश्वास कुछ कम हुआ। रमा को कागज पेंसिल मिल गया। एक क्षण में उसने नक्शा नकल कर लिया और युवकों को धन्यवाद देकर चला। एकाएक उसने फिर पूछा—'प्रजा मित्र' के सम्पादक के पास?

रमा ने घर पहुँचकर उस नक्शे पर दिमाग लगाना शुरू किया, लेकिन मुहरों की चालें चलने की जगह वह यही सोच रहा था कि यह नशा कहाँ देखा। शायद यह याद आते ही उसे नक्शो का हल भी सूझ जायेगा! अन्य, प्राणियों की तरह मस्तिष्क भी कार्य में तत्पर न होकर बहाने खोजता है। कोई आधार मिल जाने से वह मानो छुटो पा जाता है। रमा आधी रात तक

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