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नकशा सामने खोले बैठा रहा। शतरंज की बड़ी-बड़ी मार्क की बाजियों खेली थी, उन सबका नकशा उन्ले वाद था। पर यह नशा कहाँ देखा?

सहमा उसको आँखों के सामने विजनो-लो काँध गयी। खोयी हुई स्मृति मिल गयी। अहा ! राजा साहब ने यह नकसा दिया था। हाँ, ठीक है। लगातार तीन दिन दिमाग लड़ाने के बाद इसे उसने हल क्रिया था। नक़शे की नकल भी कर लाया था। शिर तो उसे एक-एक चाल बाद आ गयी। एक पास में नकशा हल हो गया। उसने उल्लाब के नशे में जमीन पर दो-तीन कुलाचें लगानी। मूछों पर ताय दिया, आईने में मुंह देखा, और चारपाई पर लेट गया इस तरह अगर महाने में एक नकाशा मिलता जाय, तो क्या पूछना?

देवीदीन अभी आग सुलगा रहा था कि रमा प्रसन्न मुख आकर बोला——दादा, जानसे हो 'प्रजामित्र, अखबार का दफ्तर कहाँ है?

देवी——जानता क्यों नहीं हूँ। वहाँ कौन अखबार है, जिसका पता मुझे न मालूम हो ? 'प्रजा-मित्र का संपादक एक रंगीला युवक है, जो हरदम मुंह में पान भरे रहता है। मिलने जानो, सो आँखों से बातें करता है, मगर है हिम्मत का धनी। दो बेर जेल ही आया है।

रमा——ग्राज ज्ञरा बहाँ तक जानोगे?

देवीदीन ने कातर भाव से कहा——मुझे भेजकर क्या करोगे ? मैं न जा सकूंगा।

'क्या बहुत दूर है?

'नहीं, दूर नहीं है।'

'फिर क्या बात है?

देवीदीन में अपराधियों के भाव के कहा——बात कुछ नहीं है, बुड़िया दिगड़ती है। उन्ले वचन दे दुका हूँ, कि सुदेशी-विदेश के झगड़े में न पड़गा, न किसी अक्षवार के दफ्तर में जाऊँगा। उसका दिया जाता हूँ, तो उसका हुकुम भी तो बजाना पड़ेगा।

रमा ने मुसकराकर कहा——दादा, तुम तो दिल्लगी करते हो। मेरा एक बड़ा जरूरी काम है। उसने शतरंच का एक नकशा छापा था, जिस पर पचास रुपया इनाम है। मैंने वह नकशा हल कर दिया है। आज छप जाय, तो

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