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रमा ने आगे बढ़कर टोकरी उतरवा ली। इतनी भारी थी कि संभाले न संभलती थी।

जग्गो ने पूछा——वह कहाँ गये हैं ?

रमा ने बहानां किया——मुझे तो नहीं मालूम, अभी इस तरफ चले गये हैं।

बुढ़िया ने मंजूर के सिर का टोकरा उतरवाया और जमीन पर बैठकर एक टूटी-सी पंखिया झलती हुई बोली——चरस की चाट लगी होगी और क्या ! मैं मर-मर कमाऊँ और वह बैठे-बैठे मौज उड़ाये और चरस पीयें।

रमा जानता था, देवीदीन चरस पीता है; पर बुढ़िया को शान्त करने के लिए बोला——क्या चरस पीते हैं ? मैंने तो नहीं देखा।

बुढ़िया ने पीठ की सारी हटाकर, उसे पंखे की डंडी के खुजलाते हुए कहा——इनसे कौन नशा छूटा है, चरस यह पियें, गांजा यह पियें, शराब इन्हें चाहिए, भांग इन्हें चाहिए। हाँ, अभी' तक अफीम नहीं खायी, या राम जाने खाते हों, मैं कौन हरदम देखती रहती हूँ। मैं तो सोचती हूँ कौन जाने आगे क्या हो, हाथ में चार पैसे होंगे, तो पराये भी अपने हो जायेंगे, पर इस भले आदमी को रत्ती-भर चिन्ता नहीं सताती। कभी तीरथ है, कभी कुछ, कभी कुछ मेरा तो (नाक पर उँगली रखकर) नाक में दम आ गया। भगवान उठा ले जाते तो यह कुसंग तो छूट जाता। तब याद करेंगे लाला। तब जाग्गी कहां मिलेगी जो कमा-कमाकर गुलछरें उड़ाने को दिया करेगी। रक्त के आँसू न रोयें, तो कह देना कोई कहता था। (मंजुर से) कै पैसे हुए तेरे?

मजूर ने बीड़ी जलाते हुए कहा——बोझ देख लोमाई, गर्दन टूट गयी !

जग्गो ने निर्दय भाव से कहा——हाँ, हां, गर्दन टूट गयी ! बड़ा सुकुमार है न ! यह ले, कल फिर चले आना।

मजूर ने कहा——यह तो बहुत कम है। मेरा पेट न भरेगा। जग्गो ने दो पैसे और थोड़े आलू देकर उसे विदा किया और दूकान सजाने लगी। सहसा उसे हिसाब की याद आ गयी। रमा से बोली——भैया, जरा आज का खर्चा तो टांक दो। बाजार में जैसे आग लग गयी है।

बुढ़िया छबड़ियों में चीजें लगा-लगाकर रखती जाती थी और हिसाब

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