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उसका मातृ-हृदय उसे गले लगाने के लिए अधीर हो उठा। दोनों के हृदय प्रेम के सूत्र में बंध गये। एक ओर पुत्र-स्नेह था, दूसरी ओर मातृ-भक्ति! वह मालिन्य जो अब तक गुप्त भाव से दोनों को पृथक किये था, आज एकाएक दूर हो गया।

बुढ़िया ने कहा——मुंह-हाथ धो लिया है न बेटा! बड़े मीठे सन्तरे लायी हूं, एक लेकर चखो तो।

रमा ने सन्तरा खाते हुए कहा——आज से मैं तुम्हें अम्मा कहा करूँगा।

बुढ़िया के शुष्क, ज्योतिहीन, ठंडे; कृपणता नेत्रों से मोती के–से दो बिन्दु निकल पड़े।

इतने में देवीदीन दबे पाँव आकर खड़ा हो गया। बुढ़िया ने तड़पकर पूछा—— यह इतने सबेरे किधर सवारी गयी थी सरकार की ?

देवी ने सरलता से मुसकराकर कहा——कहीं नहीं, जरा एक काम से चला गया था।

'क्या काम था, जरा मैं भी सुनूं, या मेरे सुनने लायक नहीं है?'

'पेट में दरद था, जरा बैदजी के पास चूरन लेने गया था।'

'झूठे हो तुम, उडो उससे जो तुम्हें जानता न हो। चरस की टोह में गये थे तुम?'

'नहीं, तेरे चरन छूकर कहता हूँ. यह झूठ-मूठ मुझे बदनाम करती है।'

'तो फिर कहाँ गये थे तुम ?'

'बता तो दिया। रात खाना दो कौर ज्यादा खा गया था, सो पेट फूल गया, और मीठा-मीठा....'

झूठ है, बिल्कुल झूठ! तुम चाहे झूठ बोलो, तुम्हारा मुँह साफ कहे देता है, यह बहाना है। चरस, गाँजा इसी टोह में गये थे तुम। एक न मानूंगी। तुम्हें इस बुढ़ापे में नसे को सूझती है, यहाँ मेरा मरन हुआ जाता है। सबेरे के गये-गये नौ बजे लौटे हैं, जानो यहाँ कोई उनकी लौंडी है!'

देवीदोन ने एक झाडू लेकर दुकान में झाडू लगाना शुरू किया, पर बुढ़िया ने उसके हाथ से झाडू छीन लिया और पूछा——तुम अब तक थे कहाँ ? जब तक यह न बताओगे, भीतर घुसने न दूंगी।

ग़बन
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