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नीच होता है, खाने-पीने से नीच नहीं होता। प्रेम से जो भोजन मिलता है, वह पवित्र होता है। उसे तो देवता, भी खाते हैं।'

बुढ़िया के हृदय में भी जाति-गौरव का भाव उदय हुआ। बोली——बेटा, खटिक कोई नीच जात नहीं हैं। हम लोग ब्राह्मन के हाथ का भी नहीं खाते। कहार का पानी तक नहीं पीते। मांस-मछली हाथ से नहीं छूते। कोई कोई शराब पीते हैं, मुदा लुक-छिपकर। इसने किसी को नहीं छोड़ा बेटा। बड़े-बड़े तिलकधारी गटागट पीते हैं ! लेकिन मेरी रोटियाँ अच्छी लगेंगी ?

रमा ने मुसकराकर कहा-प्रेम की रोटियों में अमृत रहता है अम्मा, चाहे गेहूँ की हो या बाजरे की।

बुढ़िया यहाँ से चली तो मानों अंचल में आनन्द की निधि भरे हो।

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जब से 'रमा चला गया, रतन को जालपा के विषय में बड़ी चिन्ता हो गयी थी। वह किसी बहाने से उसकी मदद करते रहना चाहती थी। इसके साथ ही यह भी चाहती थी कि जालपा किसी तरह ताड़ने न पाये। अगर कुछ रुपया खर्च करके भी रमा का पता चल सकता, तो वह सहर्ष खर्च कर देती। जालपा की रोती हुई आँखें देखकर उसका दिल मसोस उठता था। वह उसे प्रसन्न मुख देखना चाहती थी। अपने अँधेरे, रोने घर से ऊबकर वह जालपा के घर चली जाया करती। वहाँ घड़ी भर हँस-बोल लेने से उसका चित्त प्रसन्न हो जाता था। अब वहाँ भी वही नहूसत छा गयी। यहाँ आकर उसे अनुभव होता था कि मैं भी संसार में हूँ उस संसार में जहाँ जीवन है, लालसा है, प्रेम है, बिनोद है। उसका अपना जीवन तो व्रत की वेदी पर अर्पित हो गया था। वह तन-मन से उस व्रत का पालन करती थी; पर शिव-लिंग के ऊपर रखे हुए घट में क्या वह प्रवाह है, तरंग है, नाद है जो सरिता में है ? वह शिव के मस्तक को शीतल करता रहे, यही उसका काम है। लेकिन क्या उसमें सरिता के प्रवाह और तरंग और नाद का लोप हो गया है?

इसमें सन्देह नहीं कि नगर के प्रतिष्ठित और सम्पन्न घरों से रतन का परिचय था; लेकिन जहाँ प्रतिष्ठा थी, वहाँ तकल्लुफ या, दिखावा था, ईर्ष्या थी, निन्दा थी। क्लब के संसर्ग से भी उसे अरुचि हो गयी थी। वहाँ विनोद अवश्य था, क्रीड़ा अवश्य थी, किन्तु पुरुषों के आतुर नेत्र भी थे, विकल हृदय,

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