पृष्ठ:ग़बन.pdf/१८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

अपने आराम को देखूँ या उनकी बीमारी को देखूँ। बहन, कभी-कभी ऐसा जी ऊब जाता है कि थोड़ी-सी संखिया खाकर सो रहूँ। विधाता से इतना भी नहीं देखा जाता। अगर कोई मेरा सर्वस्व लेकर भी इन्हें अच्छा कर दे कि इस बीमारी की जड़ टूट जावे, तो मैं खुशी से दे दूँगी।

जालपा ने सशंक होकर कहा-यहाँ किसी बैद्य को नहीं बुलाया?

'यहाँ के वैद्यों को देख चुकी हूँ, बहन। वैद्य-डाक्टर सबको देख चुकी !'

'तो कब तक आओगी?

'कुछ ठीक नहीं। उनकी बीमारी पर है ! एक सप्ताह में आ जाऊँ, महीने दो महीने लग जाये, क्या ठीक है। मगर जब तक बीमारी की जड़ न टूट जायेगी न आऊँगी।

विधि अन्तरिक्ष में बैठी हँस रही थी! जालपा मन में मुसकायी। जिस बीमारी की जड़ जवानी में न टूटी, बुढ़ापे में क्या टूटेगी। लेकिन इस सदिच्छा से सहानुभूति न रखना असम्भव था। बोली——ईश्वर चाहेंगे, तो वह वहाँ से जल्द अच्छे होकर लौटेंगे, बहन।

'तुम भी चलती तो बड़ा आनन्द आता।'

जालपा ने करुण भाव से कहा——क्या कहू बहन, जाने भी पाऊँ। यहाँ दिन भर यह आशा लगी रहती है कि कोई खबर मिलेगी। वहाँ मेरा जी और घबराया करेगा।

"मेरा दिल कहता है कि बाबु जी कलकत्ते में हैं।'

'तो जरा इधर-उधर खोजना। अगर कहीं पता मिले तो मुझे तुरंत खबर देना।'

यह तुम्हारे कहने की बात नहीं है, जालपा !'

'यह मुझे मालूम है, खत तो बराबर भेजती रहोगी ?

हाँ अवश्य, रोज नहीं तो अंतरे दिन जरूर लिखा करूंगी। मगर तुम भी जवाब देना।'

जालपा पान बनाने लगी। रतन उसके मुँह की ओर अपेक्षा के भाव से ताकती रही, मानो कुछ कहना चाहती है और संकोचवश नहीं कह सकती। जालपा ने पान देते समय उसके मन का भाव ताड़कर कहा——क्या है बहन, क्या कह रही हो ?

१८४
ग़बन