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रतन——कुछ नहीं, मेरे पास कुछ रुपये हैं, तुम रख लो। मेरे पास रहेंगे तो खर्च हो जायेंगे।

जालपा ने मुसकराकर आपत्ति की-और जो मुझसे खर्च हो जाये तो?

रतन ने प्रफुल्ल मन से कहा——तुम्हारे ही तो हैं बहन, किसी गैर के तो हैं नहीं !

जालपा विचारों में डूबी हुई जमीन की तरफ ताकती रही। कुछ जबाब न दिया। रतन ने शिकवे के अन्दाज से कहा——तुमने कुछ जवाब नहीं दिया बहन। मेरी समझ में नहीं आता, तुम मुझसे खिंची क्यों रहती हो। मैं चाहती हूँ, हममें और तुममें ज़रा भी अन्तर न रहे, लेकिन तुम मुझसे दूर भागती हो ! अगर मान लो मेरे सौ-पचास रुपये तुम्हीं से खर्च हो गये, तो क्या हुआ ? बहनों में ऐसा कौड़ी-कौड़ी का हिसाब नहीं होता !

जालपा ने गम्भीर होकर कहा-कुछ कहूँ, बुरा तो न मानोगी ?

'बुरा मानने की बात होगी तो जरूर बुरा मानूँगी।'

'मैं तुम्हारा दिल दुखाने के लिए नहीं कहती। संभव है, तुम्हें बुरी बुरी लगे। तुम अपने मन में सोचो, तुम्हारे इस बहनापे में दया का भाव मिला हुआ है या नहीं ? तुम मेरी गरीबी पर तरस खाकर...

रतन ने लपककर दोनों हाथों से उसका मुँह बन्द कर दिया और बोली-बस, अब रहने दो। तुम चाहे जो ख्याल करो, मगर वह भाव कभी मेरे मन में न था और न हो सकता है। मैं जानती हूँ, अगर मुझे भूख लगी हो, तो मैं निस्संकोच होकर तुमसे कह दूंगी, बहन, मुझे कुछ खाने को दो, भूखी हूँ।

जालपा ने उसी निर्ममता से कहा——इस समय ऐसा कह सकती हो। तुम जानती हो किसी दूसरे समय तुम पुरियाँ क्या रोटियों के बदले मेवे खिला सकती हो; लेकिन ईश्वर न करे कोई ऐसा समय आये जब तुम्हारे घर में रोटी का टुकड़ा न हो, तो शायद तुम इतनी निस्संकोच न हो सको।

रतन ने दृढ़ता से कहा——मुझे उस दशा में भी तुमसे मांगने में संकोच न होगा। मैत्री परिस्थितियों का विचार नहीं करती। अगर यह विचार बना रहे, तो समझ लो, मैत्री नहीं है। ऐसी बातें करके तुम मेरा द्वार बन्द कर रही हो। मैने मन में समझा था, तुम्हारे साथ जीवन के दिन काट दूंगी; लेकिन तुम अभी से चेतावनी दिये देती हो ! अभागों को प्रेम की मिक्षा भी नहीं मिलती।

ग़बन
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