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यह कहते-कहते रतन की आँखें सजल हो गयीं। जालपा अपने को दुखिनी समझ रही थी और दुखी जनों को निर्भय कहने की स्वाधीनता होती है; लेकिन रतन की मनोव्यथा उसकी व्यथा से कहीं विदारक थी। जालपा के पति के लौट आने की आशा अभी थी। वह जवान है, उसके आते ही जालपा की ये बुरे दिन भूल जायेंगे। उसकी आशाओं का सूर्य फिर उदय होगा। इसकी इच्छाएं फिर फूँलेगी। भविष्य अपनी सारी आशाओं और आकांक्षाओं के साथ उसके सामने था-विशाल, उज्ज्वल, रमणीक। रतन का भविष्य क्या था? कुछ नहीं, शून्य. अन्धकार !

जालपा आँखें पोंछकर उठ खड़ी हुई। बोली-पत्रों के जवाब देती रहना। रुपये देती जाओ।

रतन ने पर्स से नोटों का एक बंडल निकालकर उसके सामने रख दिया; पर उसके चेहरे पर प्रसन्नता न थी।

जालपा ने सरल भाव से कहा- क्या बुरा मान गयीं ?

रतन ने रूठे हुए शब्दों में कहा-बुरा मानकर तुम्हारा क्या कर लूँगी।

जालपा ने उसके गले में बाँहें डाल दीं। अनुराग से उसका हृदय गद्गद हो गया। रतन से उसे इतना प्रेम कभी न हुआ था। वह उसको अब तक खिंचती थी, ईर्ष्या करती थी। आज उसे रतन का असली रूप दिखायी दिया, यह सचमुच अभागिनी है और मुझसे बढ़कर।एक क्षण बाद, रतन आँखों में आँसू और हँसी एक साथ भरे विदा हो गयी।

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कलकते में वकील साहब ने ठहरने का पहले ही इन्तजाम कर लिया था। कोई कष्ट न हुआ। रतन ने महाराज और टीमल कहार को साथ ले लिया था। दोनों वकील साहब के पुराने नौकर थे और घर के-से आदमी हो गये थे। शहर के बाहर एक बंगला था ! उसके कमरे मिल गये। इससे ज्यादा जगह की वहाँ जरूरत भी न थी। हाते में तरह-तरह के फूल-पौधे लगे हुए थे। स्थान बहुत सुन्दर मालूम होता था। पास-पड़ोस में और कितने ही बँगले थे। शहर के लोग उधर हवाखोरा के लिए जाया करते थे, और

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