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हरे होकर लौटते थे; पर रतन को वह जगह काड़े खाती थी। बीमार के साथ वाले भी बीमार होते हैं। उदासों के लिये स्वर्म भी उदास है !

सफ़र ने वकील साहब को और भी शिथिल कर दिया था ! दो-तीन दिन तो उनकी दशा उससे भी खराब रही, जैसी प्रयाग में थी लेकिन दवा शुरू होने के दो-तीन दिन बाद वह कुछ समलने लगे। रतन सुबह से आयी रात तक उनके पास कुर्सी डाले बैठी रहती। स्नान-भोजन की भी सुधि न रहती। वकील साहब चाहते थे कि यह यहाँ से हट जाय तो दिल खोल कर कराहें। उसे तसकीन देने के लिए वह अपनी दशा को छिपाने की चेष्टा करते रहते थे। वह पूछती, आज कैसी तबीयत है ? तो वह फीकी मुसकराहट के साथ कहते——आज तो जी बहुत हल्का मालूम होता है। बेचारे सारी रात करवटें बदल कर काटते थे, पर रतन पूछती—रात नींद आयी थी ? तो कहते——हाँ, खूब सोया। रतन पथ्य सामने ले जाती, तो अरुचि होने पर भी खा लेते। रतन समझती, अब यह अच्छे हो रहे हैं। कविराजजी से भी वह यही समाचार कहती। वह भी अपने उपचार की सफलता पर प्रसन्न थे।

एक दिन वकील साहब ने रतन से कहा——मझे डर है कि मुझे अच्छा होकर तुम्हारी दवा न करनी पड़े।

रतन ने प्रसन्न होकर कहा——इससे बढ़कर क्या बात होगी। मैं तो ईश्वर' से मनाती हूँ कि तुम्हारी बीमारी मुझे दे दें।

'शाम को घुम आया करो। अगर बीमार पड़ने की इच्छा हो, तो मेरे अच्छे हो जाने पर पड़ना।'

कहाँ जाऊँगी, मेरा कहीं जाने को जी ही नहीं चाहता। मुझे यहीं सबसे अच्छा लगता है।'

वकील साहब को एकाएक रमानाथ का ख्याल आ गया। बोले—जरा शहर के पार्को में घूम-घूम कर देखो, शायद रमानाथ का पता चल जाय।

रतन को अपना वादा याद आ गया। रमा को आ जाने की आनन्दमय आशा ने एक क्षण के लिए उसे चंचल कर दिया। कहीं वह पार्क में बैठे 'मिल जायें, तो पूछूँ, कहिये बाबूजी, अब कहाँ भाग कर जाइयेगा ? इस कल्पना से उसकी मुद्रा खिल उठी। बोली——जालपा से मैंने वादा किया था कि पता लगाऊँगी; पर यहाँ आकर भूल गयी।

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