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सामने उद्यान में चाँदनी कुहरे की चादर ओढ़े जमीन पर पड़ी सिसक रही थी। फूल और पौधे मलिन मुख, सिर झुकाये, आशा और भय से विकल हो-होकर मानो उसके वक्ष पर हाथ रखते थे, उसकी शीतल देह का स्पर्श करते थे और आँसू की दो बूंदें गिराकर फिर उसी भाँति देखने लगते थे।

सहसा वकील साहब ने आँखें खोली। आँखों के कोने में आँसू की दो बूँदें मचल रही थी।

क्षीण स्वर में बोले—— टोमल ! क्या सिद्धू आये थे ?

फिर इस प्रश्न पर आप ही लज्जित होकर मुसकराते हुए बोले-मुझे ऐसा मालूम हुआ, जैस सिद्धू आये हों।

फिर गहरी साँस लेकर चुप हो गये और आँखें बन्द कर लो।

सिद्धू उस बेटे का नाम था, जो जवान होकर मर गया था। इस समय वकील साहब को बराबर उसी की याद आ रही थी। कभी उसका बालकपन सामने आ जाता, कभी उसका मरना आगे दिखायी देने लगता कितने स्पष्ट, कितने सजीव चित्र थे। उनकी स्मृति कभी इतनी मूर्तिमान, इतनी चित्रमय न थी।

कई मिनट के बाद उन्होंन फिर आँख खोली और इधर-उधर खोई हुई आँखों से देखा। उन्हे अभी ऐसा जान पड़ा था कि मेरी माता आकर पूछ रही है, बेटा, तुम्हारा जी कैसा है ?

सहसा उन्होने टीमल से कहा——यहाँ आओ। किसी वकील को बुला लाओ। जल्दी जाओ, नहीं वह घूमकर आती होगी।

इतने में मोटर का हॉर्न सुनाई दिया और एक पल में रतन आ पहुँची। वकील को बुलाने की बात उड़ गयी।

वकील साहब ने प्रसन्न-मुख होकर पूछा-कहाँ-कहाँ गयीं ? कुछ उनका पता मिला?

रतन ने उनके माथे पर हाथ रखते हुए कहा-कई जगह देखा। कहीं न दिखायी दिये। इतने बड़े शहर में सड़कों का पता तो जल्दी चलता नहीं, वह भला क्या मिलेंगे। दवा खाने का समय तो हो गया न ?

वकील साहब ने दबी जबान से कहा—— लाओ, खा लूँ।

रतन ने दवा निकाली और उन्हें उठाकर पिलायी। इस समय वह न,

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ग़बन