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मैं जो कहती हूँ।'

यह कहती हुई वह कमरे में आयी और रोशनी के सामने बैठकर जालपा को पत्र लिखने लगी---

'बहन, नहीं कह सकती, क्या होने वाला है। आज मुझे मालूम हुआ कि में अब तक मीठे भ्रम में पड़ी हुई थी। बाबूजी अब तक मुझसे अपनी दशा छिपाते थे; मगर आज यह बात उनके काबू के बाहर हो गई। तुमसे क्या कहूँ, आज वह वसीयत लिखाने की चर्चा कर रहे थे। मैंने ही टाला। दिल घबरा रहा है। बहन, जी चाहता है, थोड़ी-सी संखिया खाकर सो रहूँ। विधाता को संसार दयालु, कृपालु, दीनबन्धु और जाने कौन-कौन-सी उपाधियाँ देता है। मैं कहती हूँ, उससे निर्दयी, निर्मम, निष्ठुर कोई शत्रु भी नहीं हो सकता। पूर्व जन्म का संस्कार केवल मन को समझाने की चीज है। जिस दण्ड का हेतु ही हमें न मालूम हो, उस दण्ड का मूल्य ही क्या? वह तो जबरदस्त की लाठी है, जो अघात करने के लिए कोई कारण गड़ लेती है। इस अँधेरे, निर्जन, काँटों से भरे हुए जीवन-मार्ग में केवल एक टिमटिमाता हुआ दीपक मिला था। मैं उसे अंचल में छिपाये, विधि को धन्यवाद देती हुई, गाती चली जाती थी; पर वह दीपक भी मुझसे छीना जा रहा है ! इस अन्धकार में मैं कहाँ जाऊँगी, कौन मेरा रोना सुनेगा कौन मेरो बाँह पकड़ेगा?

'बहन, मुझे क्षमा करना। मुझे बाबू जी का पता लगाने का अवकाश नहीं मिला। आज कई पार्कों में चक्कर लगा आयी, पर कहीं पता नहीं चला। कुछ अवसर मिला तो फिर जाऊंगी। माता जी को मेरा प्रणाम कहना।'

पत्र लिखकर रतन बरामदे में आयी। शीतल पवन के झोंके आ रहे थे। प्रकृति मानो रोगशय्या पर पड़ी सिसक रही थी।

३०

उसी वक्त वकील साहब की साँस वेग से चलने लगी।

रात में तीन बज चुके थे। रतन आधी रात के बाद आरामकुर्सी पर लेटे ही लेटे झपकियाँ ले रही थी कि सहसा वकील साहब के गले का खर्राटा सुनकर चौंक पड़ी। उलटी साँसें चल रही थीं। वह उनके सिरहाने चारपाई पर बैठ गयी और उनका सिर उठाकर अपनी जाँघ पर रख लिया। सभी न जाने कितनी रात बाकी है। मेज पर रखी हुई छोटी घड़ी की ओर देखा:अभी तीन

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