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टीमल खड़ा था और सामने अधाह अन्धकार जैसे अपने जीवन को अन्तिम वेदना में मूछित पड़ा था।

रतन ने कहा——टीमल, जरा पानी गरम करोगे?

टीमल ने वहीं खड़े-खड़े कहा——पानी गरम करके क्या करोगी, बहूजी, गोदान करा दी। दो बूँद गंगाजल मुँह में डाल दो।

रतन ने पति की छाती पर हाथ रखा। छाती गरम थी। उसने फिर द्वार की ओर ताका। महाराज न दिखायी दिये। वह अब भी सोच रही थी, कविराज जी आ जाते तो शायद इनकी हालत सँभल जाती। पछता रही थी, कि इन्हें यहाँ क्यों लावी। कदाचित् रास्ते की तकलीफ़ और जलवायु ने बीमारी को असाव्य कर दिया। यह भी पछतावा हो रहा था कि मैं सन्ध्या समय क्यों घूमने चली गयी। शायद उतनी ही देर में इन्हें ठण्ड लग गयी। जीवन एक दीर्घ पश्चात्ताप के सिवा और क्या है !

पछतावे की एक-दो बात थी ? इस आठ साल के जीवन में मैंने पति को क्या आराम पहुँचाया? वह बारह बजे रात तक कानूनी पुस्तके देखते रहते थे, मैं पड़ी सोती रहती थी। वह सन्ध्या समय भी मुमक्किलों से मामले की बातें करते थे, मैं पार्क और सिनेमा की सैर करती थी, बाजारों में मटरगश्ती करती थी। मैंने इन्हें धनोपार्जन के एक यन्त्र के सिवा और क्या समझा ! यह कितना चाहते थे कि मैं इनके साथ बैठे और बातें करूं; पर मैं भागती फिरती थी। मैंने कभी इनके हृदय के समीप जाने की चेष्टा नहीं की, कभी प्रेम की दृष्टि से नहीं देखा। अपने घर में दीपक न जलाकर दूसरों के उजाले घर का आनन्द उठाती फिरती—मनोरंजन के सिवा मुझे और कुछ सूझता ही न था। विलास और मनोरंजन, यही मेरे जीवन के दो लक्ष्य थे। अपने जले हुए दिल को इस तरह शान्त करके मैं सन्तुष्ट थी। खीर और मलाई की थाली क्यों ने मुझे मिली, इस क्षोभ में मैंने अपनी रोटियों को लात मार दी।

आज रतन को उस प्रेम का पूर्ण परिचय मिला, जो इस विदा होनेवाली आत्मा को उससे था—— वह इस समय भी उसी की चिन्ता में मग्न थी। रतन के लिए जीवन में फिर भी कुछ आनन्द था, कुछ रुचि थी, कुछ उत्साह था। इनके लिए जीवन में कौन-सा सुख था। न खाने-पीने का सुख, न

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