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मले–तमाशे का शौक। जीवन क्या एक दीर्घ तपस्या थी, जिसका मुख्य उद्देश्य कर्तव्य का पालन था। क्या रतन उनका जीवन सुखी न बना सकती थी ? क्या एक क्षण के लिए कठोर कर्तव्य की चिन्ताओ से उन्हें मुक्त न कर सकती थी? कौन कह सकता है कि बिराम' और विश्राम से वह बुझने वाला दीपक कुछ दिन और न' प्रकाशमान रहता ? लेकिन उसने कभी अपने पति के प्रति अपना कर्तव्य ही न समझा। उसको अन्तरात्मा सदैव विद्रोह करती रही, केवल इसलिए कि इनसे मेरा सम्बन्ध क्यों हुआ। क्या उस विषय में सारा अपराध इन्हीं का था ? कौन कह सकता है कि दरिद्र माता-पिता ने मेरी भी दुर्गति न की होती-जवान आदमी भी सब-के-सब क्या आदर्श ही होते हैं ? उनमें भी तो व्यभिचारी, क्रोधी, शराबी, सभी तरह के होते हैं। कौन कह सकता है, इस समय में किस दिशा में होती। रतन का एक-एक रोम इस समय उसका तिरस्कार कर रहा था। उसने पति के शीतल चरणों पर सिर झुका लिया और बिलख-बिलखकर रोने लगी। वह सारे कठोर भाव जो बराबर उसके मन में उठते रहते थे, वह सारे कटु वचन जो उसने जल-जलकर उन्हें कहे थे, इस समय सैकड़ों बिच्छुओ के समान डंक मार रहे थे। हाय ! मेरा यह व्यवहार उस प्राणी के साथ था, जो सागर की भांति गम्भीर था। इस हृदय में कितनी कोमलता थी, कितनी उदारता ! मैं एक बीड़ा पान दे देती थी तो कितने प्रसन्न हो जाते थे, जरा हँसकर बोल देती थी, तो कितने तृप्त हो जाते थे; पर मुझसे इतना भी न होता था। इन बातों को याद करके उसका हृदय फटा जाता था। उसे प्रबल आकांक्षा हो रही थी कि इन चरणों पर सिर रखे हुए मेरे प्राण इसी क्षण निकल जायें। उन चरणों को मस्तक से स्पर्श करके आज उसके हृदय में कितना अनुराग उमड़ा आता था, मानो एक युग की संचित मित्रि को वह आज ही', इसी क्षण लुटा देगी ! मृत्यु की दिव्य ज्योति के सम्मुख उसके अन्दर का सारा मालिन्य, सारी दुर्भावना, सारा विद्रोह मिट गया।

वकील साहब की आँखें खुली हुई थी, पर मुख पर किसी भाव का चिह्न न था। रतन को विह्वलता भी अब उनकी बुझती हुई चेतना को प्रदीप्त न कर सकती थी। हर्ष और शोक के बन्धन' से वह मुक्त हो गये थे, कोई रोये तो ग़म नहीं, हँसे तो खुशी नहीं।

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ग़बन