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टीमल ने आचमनी में गंगाजल लेकर उनके मुँह में डाल दिया। आज उन्होंने कुछ बाधा न दी। वह जो पाखंडों और रूढ़ियों का शत्रु था, इस समय शान्त हो गया था; इसलिए नहीं कि उसमें धार्मिक विश्वास का उदय हो गया था, बल्कि इसलिए कि उसमें अब कोई इच्छा न थी। इतनी ही उदासीनता से वह विष का घूंट पी जाता।

मानव-जीवन की सबसे महान् घटना कितनी शान्ति के साथ घटित हो जाती है। वह विश्व का एक महान् व्यंग, वह महत्वाकांक्षाओं का प्रचण्ड सागर, वह उद्योग का अनन्त भन्डार, वह प्रेम और द्वेष, सुख और दुःख का लीला-क्षेत्र, वह बुद्धि और बल को रंगभूमि न जाने कब और कहाँ लीन हो जाती है, किसी को खबर नहीं होती। एक हिचकी भी नहीं, एक उच्छवास भी नहीं, एक आह भी नहीं निकलती ! सागर को हिलोरी का कहाँ अन्त होता है, कौन बता सकता है ? ध्वनि कहाँ वायुमग्न हो जाती है, कौन जानता है ? मानवीय जीवन उस हिलोर के सिवा, उस ध्वनि के सिवा और क्या है ? उसका अबसान भी उतना ही शान्त, उतना ही अदृश्य हो तो क्या आश्चर्य है ? भूतों के भक्त पूछते हैं, क्या वस्तु निकल गयी ? कोई विज्ञान का उपासक कहता है, एक क्षोण ज्योति निकल जाती है। कपोल-विज्ञान के पुजारी कहते हैं, आँखों से प्राण निकले, मुँह से निकले, ब्रह्माण्ड से निकले ! कोई उनसे पूछे, हिलोर लय होते समय क्या चमक उठती है ? ध्वनि लीन होते समय बधा मूर्तिमान् हो जाती है ? यह उस अनन्त यात्रा का एक विश्राम मात्र है जहाँ यात्रा का अन्त नहीं, नया उत्थान होता है !

कितना महान परिवर्तन है ! वह जो मच्छर के डंक को सहन न कर सकता था, अब उसे चाहे मिट्टी में दबा दो, चाहे अग्नि-चित्ता पर रख दो, उसके माथे पर बल तक न पड़ेगा। टीमल ने वकील साहब के मुख की ओर देखकर कहा-बहूजी, आइए खाट से उतार दें। मालिक चले गये !

यह कहकर वह भूमि पर बैठ गया और दोनों आँखों पर हाथ रखकर फूट-फूटकर रोने लगा। आज तीस वर्ष का साथ छूट गया। जिसने कभी आधी बात नहीं कही, कभी तू करके नहीं पुकारा, बह मालिक अब उसे छोड़े चला जा रहा था।

ग़बन
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