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जो धर्म था, उसके एक अंश का भी उसने पालन किया होता, तो उसे बोध होता। अपनी कर्त्तव्यहीनता, अपनी निष्ठुरता, अपनी श्रृंगार-लोलुपता की चर्चा करके वह इतना रोती कि हिचकियाँ बँध जाती। वकील साहब के सद्गुणो की चर्चा करके ही वह अपनी आत्मा को शान्ति देती थी। जब तक जीवन के द्वार पर एक रक्षक बैठा हुआ था, उसे किसी कुत्ते या बिल्ली या चोर-चकोर की चिन्ता न थी। लेकिन अब द्वार पर कोई रछक न था, इसलिए वह सजग रहती थी-पति का गुणगान किया करती। जीवन का निर्वाह कैसे होगा, नौकर-चाकरों में किन-किन को जवाब देना होगा, घर का कौन कौन सा खर्च कम करना होगा, इन प्रश्नों के विषय में दोनों में कोई बात न होती, मानो यह चिन्ता मृत आत्मा के प्रति श्रद्धा होगी। भोजन करना, साफ़ वस्त्र पहनना और मन को कुछ पढ़कर बहलाना भी उसे अनुचित जान पड़ता था। श्राद्ध के दिन उसने अपने सारे वस्त्र और आभूषण महापात्र को दान कर दिये। इन्हें लेकर अब वह क्या करेंगी ? इनका व्यवहार करके क्या वह अपने जीवन को कलंकित करेगी? इसके विरुद्ध पति की छोटी-सी-छोटी वस्तु को भी स्मृति-चिह्न समझकर वह देखती भालती रहती थी। उसका स्वभाव इतना कोमल हो गया था कि कितनी ही बड़ी हानि हो जाय, उसे क्रोध न आता था। टीमल के हाथ से चाय का सेट छूटकर गिर पड़ा; पर रतन के माथे पर बल तक न आया। पहले एक दावात टूट जाने पर इसी टीमल को उसने बुरी तरह डाँट बतायी थी,निकाले देती थी; पर आज उस से कई गुने नुकसान पर उसने जबान तक न खोली। कठोर भाव उसके हृदय में आते हुए मानों डरते थे, कि कहीं उसे आघात न पहुँचे या शायद पति शोक और पति-गुणगान के सिवा और किसी विचार को मन में लाना वह पाप समझती थी।

वकील साहब के भतीजे का नाम था मणिभूषण। बड़ा ही मिलनसार, हँसमुख,कार्य-कुशल। इसी एक महीने में उसने सैकड़ों मित्र बना लिये। शहर में जिन-जिन वकीलों और रईसों से वकील साहब का परिचय था, उन सबसे उसने ऐसा मेल-जोल बढ़ाया, ऐसी बेतकल्लुफी पैदा की, कि रतन' को खबर तक नहीं और उसने बैंक का लेन-देन अपने नाम से शुरू कर दिया। इलाहाबाद बैंक में वकील साहब के बीस हजार रुपये जमा थे। उस पर

ग़बन
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