पृष्ठ:ग़बन.pdf/२०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

तो उसने कब्जा कर ही लिया, मकानों के किराये भी वसूल करने लगा, गांवों की तहसील भी खुद ही शुरू कर दी, मानो रतन से कोई मतलब ही नहीं।

एक दिन टीमल ने आकर रतन से कहा-बहुजी, जानेवाला तो चला गया, अब घर-द्वार की भी कुछ खबर लीजिए। मैंने सुना है, भैयाजी ने बैंक का सब रुपया अपने नाम करा लिया।

रतन ने उसकी ओर ऐसे कठोर कुपित नेत्रों से देखा कि उसे फिर कुछ कहने की हिम्मत न पड़ी। उसी दिन शाम को मणिभूषण ने टीमल को निकाल दिया-चोरी का इलज़ाम लगाकर, जिसमें रतन कुछ काह भी न सके।

अब केवल महाराज रह गये। उन्हें मरिणभूषण ने भंग पिला पिलाकर ऐसा मिलाया, कि वह उन्हीं का दम भरने लगे। महरी से कहते, बाबूजी का बड़ा रईसाना मिजाज हैं; कोई सौदा ला़ओ, कभी नहीं पूछते, कितने का लाये। बड़ों के घर में बड़े ही होते हैं। बहूजी बाल की खाल निकाला करती थी, यह बेचारे कुछ नहीं बोलते। महरी का मुंह पहले ही सी दिया गया था। वह एक-न-एक बहाने से बाहर की बैठक में ही मँडलाया करती। रतन को जरा भी खबर न थी, किस तरह उसके लिये व्यूह रचा जा रहा है।

एक दिन मणिभूषण ने रतन से कहा——काकीजी, अब तो मुझे यहाँ रहना व्यर्थ मालूम होता है। मैं सोचता हूँ, अब आपको लेकर घर चला जाऊँ। वहां आपकी बहु आपकी सेवा करेगी, बाल-बच्चों में आप का जी बहल जायगा और खर्च भी कम हो जायगा। आप कहें तो यह बँगला बेच दिया जाय। अच्छे दाम मिल जायेंगे।

रतन इस तरह चौंकी, मानो उसकी मूच्छी भंग हो गयी हो, मानो किसी ने उसे झंझोड़कर जगा दिया हो। सकपकाई हुई आँखो से उसकी ओर देखकर बोली——क्या मुझसे कुछ कह रहे हो ?

मणि०——जी हाँ, कह रहा था कि अब हम लोगों का यहां रहना व्यर्थ हैं। आपको लेकर चला जाऊँ, तो कैसा हो?

रतन ने उदासीनता से कहा——हाँ, अच्छा तो होगा।

२००
ग़बन