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'मुझसे तो इस शहर में एक महीना भी न रहा जायगा। मोटर को तो जल्द ही निकाल देना चाहिए।

रतन ने इसके जवाब में भी यही कह दिया--अच्छा तो होगा। वह उस मानसिक दुर्बलता की दशा में थी, जब मनुष्य को छोटे-छोटे काम भी असूझ मालूम होने लगते हैं। आभूषण की कार्य-कुशलता ने एक प्रकार से उसे पराभूत कर दिया था। इस समय जो उसके साथ थोड़ी सी भी सहानुभूति दिखा देता, उसी को वह अपना शुभचिन्तक समझने लगती। शोक और मनस्ताप ने उसके मन को इतना कोमल और नर्म बना दिया था कि उस पर किसी की भी छाप पड़ सकती थी। उसकी सारी मलिनता और खिन्नता मानों भस्म हो गयी थी, वह सभी को अपना समझती थी। उसे किसी पर सन्देह न था, किसी से शंका न थी। कदाचित् उसके सामने कोई चोर भी उसकी सम्पत्ति का अपहरण करता, तो वह शोर न मचाती।

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षोड़शी के बाद से जालपा ने रतन के घर आना-जाना कम कर दिया था। केवल एक बार घंटे-दो-घंटे के लिए चली जाया करती थी। इधर कई दिनों से मुंशी दयानाथ को ज्वर आने लगा था। उन्हें ज्वर में छोड़कर कैसे जाती। मुंशीजी को जरा ज्वर आता तो वह बक-झक करने लगते थे। कभी भाते, कभी रोते, कभी यमदूतों को अपने सामने नाचते देखते। उनका जी चाहता कि सारा घर मेरे पास बैठा रहे; सम्बन्धियों को भी बुला लिया जाय जिसमें वह सबसे अन्तिम भेंट कर लें, क्योंकि इस बीमारी से बचने की उन्हें आशा न थी। यमराज स्वयं सामने विमान लिये खड़े थे। रामेश्वरी और सब कुछ कर सकती थी, उनकी बक-झक न सुन सकती थी। ज्योंही वह रोने लगते, वह कमरे से निकल जाती ! उसे भूत-बाधा का भ्रम होता था।

मुंशीजी के कमरे में कई समाचार-पत्रों के फ़ाइल थे। यही उन्हें एक व्यसन था। जालपा का जी वहाँ बैठे-बैठे घबराने लगता, तो इन फाइलों को उलट-पलटकर देखने लगती। एक दिन उसने एक पुराने पत्र में शतरंज का एक नक्शा देखा, जिसे हल कर देने के लिए किसी सज्जन ने पुरस्कार भी रखा था। उसे ख्याल आया कि जिस ताक पर रमानाथ की विसात और मोहरे रखे हुए हैं, उस पर एक किताब में कई नक्शे भी दिये हुए हैं। वह तुरंत

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