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मुंशीजी का ज्वर इस समय कुछ उतरा हुआ था। रतन को देखते ही बोले——बड़ा दुःख हुआ देवीजी, मगर यह तो संसार है। आज एक की बारी है, कल दूसरे की बारी है। यही चल-चलाब लगा हुआ है। अब मैं भी चला। नहीं बन सकता। बड़ी प्यास है; जैसे छाती में कोई भटी जल रही हो। फुँँका जाता हूँ। कोई अपना नहीं होता बहूजी ! संसार के नाते सब स्वार्थ के नाते हैं। आदमी अकेला हाथ पसारे एक दिन चला जाता है। हाय, हाय ! लड़का था, वह भी हाथ से निकल गया। न जाने कहाँ" गया। आज होता, तो एक चुल्लू पानी देनेवाला तो होता। यह दो लौंडे हैं. इन्हें कोई फिक्र नहीं, मैं मर जाऊँ या जी जाऊं। इन्हें तीन दफे खाने को चाहिए, तीन दफे पानी पीने को। बस, और किसी काम के नहीं। यहाँ बैठते दोनों का दम घुटता है। क्या करूँ ! अबकी न बचूँगा।

रतन ने तस्कीन दी-यह मलेरिया है, दो चार दिन में आप अच्छे हो जायेंगे, घबराने की बात नहीं।

मुन्शीजी ने दीन नेत्रों से देखकर कहा——बैठ जाइए बहूजो, आप कहती हैं, आपका आशीर्वाद है तो शायद बच जाऊँ, लेकिन मुझे तो आशा नहीं है। मैं भी ताल ठोंके यमराज से लड़ने को तैयार बैठा हूँ। अब उनके घर मेहमानी खाऊँगा। अब कहां जाते हैं बचकर बचा ! ऐसा-ऐसा रगेदूँ, कि वह भी याद करें। लोग कहते हैं, वहां भी आत्माएँ इसी तरह रहती हैं ! इसी तरह वहाँ भी कचहरियां हैं, हाकिम है, राजा है, रक हैं, न्याख्यान होते हैं, समाचार-पत्र छपते हैं। फिर क्या चिन्ता है, वहां भी अहलमद हो जाऊँगा। मजे से अखबार पढ़ा करूंगा।

रतन को ऐसी हँसी छूटी कि वहाँ खड़ी न रह सकी। मुंशीजी विनोद के भाव से यह बातें नहीं कर रहे थे। उनके चेहरे पर गम्भीर विचार की रेखा थी। आज डेढ़-दो महीने के बाद रतन हँसी, और इस असामयिक हसी को छिपाने के लिए कमरे से निकल आयी। उसके साथ जालपा भी बाहर आ गयी।

रतन ने अपराधी नेत्रों से उसकी मोर देखकर कहा——दादाजी' ने मन' मैं क्या समझा होगा। सोचते होंगे, मैं तो जान से मर रहा हूँ और इसे हँसी सुझाता है। अब वहां न जाऊँगी, नहीं ऐसी ही कोई बात फिर कहेंगे,

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