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खर्च किया। जो कुछ किया बाबूजी ने किया। हाँ, जो कुछ मुझसे कहा गया वह मैंने किया।

रमानाथ के कथन में बहुत कुछ सत्य था। यदि दयानाथ की इच्छा न होती, तो रमा क्या कर सकता था? जो कुछ हुआ उनकी अनुमति से हुआ। रमानाथ पर इल्जा़म रखने से तो कोई समस्या हल न हो सकती थी। बोले--मैं तुम्हें इल्जाम नहीं देता भाई। किया तो मैंने ही; मगर यह बला तो किसी तरह सिर से टालनी चाहिए? सराफ़ का तकाजा है, कल उत्तका आदमी आवेगा। उसे क्या जबाब दिया जायगा? मेरी समझ में तो यही एक उपाय है कि उतने रुपये के गहने उसे लौटा दिये जायें। गहने लौटा लेने में भी वह झंझट करेगा: लेकिन दस-बीस रुपये के लोभ में लौटाने पर राजी हो जायगा। तुम्हारी क्या सलाह है?

रमानाथ ने शरमाते हुए कहा--मैं इस विषय में क्या सलाह दे सकता हूँ। मगर मैं इतना कह सकता हूं कि प्रस्ताव को वह खुशी से मंजूर न करेगी। अम्मा तो जानती हैं कि चढ़ावे में चन्द्रहार न जाने से उसे कितना बुरा लगा था। प्रण कर लिया है जब तक चन्द्रहार न बन जाएगा, कोई गहना न पहनूंगी।

जागेश्वरी ने अपने पक्ष का समर्थन होते देख, खुश होकर कहा--यही तो मैं इनसे कह रही हूँ।

रमानाथ--रोना-धोना मच जायगा और इसके साथ घर का पर्दा भी खुल जामगा।

दयानाथ ने माथा सिकोड़कर कहा--उससे परदा रखने की जरूरत ही क्या? अपनी यथार्थ स्थिति को वह जितनी जल्दी समझ लें, उतना ही अच्छा।

रमानाथ ने जवानों के स्वभाव के अनुसार जालपा से खूब जोट उड़ाई थी। खूब बढ़-बढ़कर बातें की थीं। जमींदारी है, उससे कई हजार का नफा है। बैंक में रुपये है, उनका सूद आता है। जालपा से अब अमर रहने की बात कही गयी, तो रमानाथ को वह पूरा लदाड़िया समझेगी। बोला--पर्दा तो एक दिन खुल ही जायगा, पर इतनी जल्दी खोल देने का नतीजा यही होगा कि वह हमें नीच समझने लगेगी। शायद अपने घरवालों को भी लिख भेजे। चारों तरफ बदनामी होगी।

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