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की जात तो पहचान ली जायगी। लेकिन ऐसा हो नहीं सकता।जो लोग देश-हित के लिये जेल जाते हैं, तरह-तरह की धौंस सहते हैं, वे इतने नीच नहीं हो सकते। मेरे साथ आधे घण्टे के लिये चलो, तो तुम्हें इसी वक्त रुपये दे दूं।'

जालपा ने मोमराजी होकर कहा——इस वक्त कहाँ चलूँ। कल ही आऊँगी।

उसी वक्त मुंशीजी पुकार उठे-बहू ! बहू !

जालपा तो लपकी हुई उनके कमरे की ओर चली। रतन शहर जा रही थी कि रामेश्वरी पंखा लिये अपने को झलती हुई दिखाई पड़ गयी। रतन ने पूछा——तुम्हें गरमी लग रही है अम्मांजी ! मैं तो ठण्ड के मारे कांप रही हूँ। अरे ! तुम्हारे पावों में यह क्या उजला-उजला लगा हुआ है ? क्या आटा पीस रही थी?

रामेश्वरी ने लज्जित होकर कहा——हां, वैद्यजी ने इन्हें हाथ के आटे की रोटी खाने को कहा है। बाजार में हाथ का आटा कहाँ मयस्सर ? मुहल्ले में कोई पिसनहारिन नहीं मिलती। मजूरिने तक चक्की से आटा पिसवा लेती है। मैं तो एक आना सेर देने को राजी हूँ पर कोई मिली नहीं।

'रतन ने अचम्भे से कहा-तुमसे चक्की चल जाती है ?

रामेश्वरी ने झेप से मुसकराकर कहा——कौन बहुत था। पाव भर तो दो दिन के लिए हो जाता है। खाते नहीं एक कौर भी। वह पीसने जा रही थी, लेकिन फिर भी मुझे उनके पास बैठना पड़ता। मुझे रात भर चक्की पीसना गौं है, उनके पास घड़ी भर बैठना गौं नहीं।

रतन जाकर जाँत के पास एक मिनट खड़ी रही, मुसकराकर माची पर बैठ गयी और बोली-तुमसे तो अब जाँत न चलता होगा, मांजी। लाओ, थोड़ा-सा गेहूँ मुझे दो, देखूं तो।

रामेश्वरी ने कानों पर हाथ रखकर कहा——अरे नहीं बहू, तुम क्या पीसोगी। चलो यहाँ से।

रतन ने प्रमाण दिया-मैंने बहुत दिनों तक पीसा है माँजी। जब मैं अपने घर थी तो रोज पीसती थी। मेरो अम्मि, लाओ थोड़ा-सा गेहूँ।

'हाथ दुखने लगेगा। छाले पड़ जायेंगे।'

ग़बन
२०७