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रतन—— मैं यह सब पीसकर उठूँगी। तुम यहाँ क्यों खड़ी हो ?

जालपा——आ जाऊँ मैं भी खिंचा हूँ?

रतन——जी चाहता है, कोई जांत का गीत गाऊँ!

जालपा——अकेली गाओगो ? (रामेश्वरी से) अम्मा, आप जरा दादाजी के पास बैठ जायें, मैं अभी आती हूँ।

जालपा भी जातं पर जा बैठी, और दोनों जाँत का यह गीत गाने लगी—

मोहि जोगिन बनाय के कहो गये, जोगिया !

दोनों के स्वर मधुर थे। जाँत को घुमर-घुमर उनके स्वर के साथ साज का काम कर रही थी। जब दोनों एक कड़ी गाकर चुप हो जाती, तो जॉल का स्वर मानो कंठ-ध्वनि से रंजित होकर और भी मनोहर हो जाता था। दोनों के हृदय इस समय जीवन के स्वाभाविक आनन्द से पूर्व थे—— न शोक का भार था, न बियोग का दुःख। जैसे दो चिडिया प्रभात की अपूर्व शोभा से मग्न होकर चहक रही हों।

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रमा की चाय की दुकान खुल तो गई; पर केवल रात को खुलती थी, दिन भर बंद रहती थी। रात को भी अधिकतर देवीदीन ही की दूकान पर, बैठता। पर विक्री अच्छी हो जाती थी। पहले ही दिन तीन रुपये के पैसे आये, दूसरे दिन से चार-पांच रुपये का औसत पड़ने लगा। चाय इतनी स्वादिष्ट होती थी कि जो एक बार यहाँ चाय पी लेता, फिर दूसरी दुकान पर न जाता। रमा ने मनोरंजन की भी कुछ सामग्री जमा कर दी। कुछ रुपये जमे हो गये, तो उसने सुन्दर मेज ली। चिराग जलने के बाद सागभाजी की बिक्री ज्यादा न होती थी। वह उन टोकरों को उठाकर अन्दर रख देता और वरामदे में वह मेज लगा देता। उस पर ताश के सेट रख देता। दो दैनिक-पत्र भी' मँगाने लगा। दूकान चल निकली। उन्हीं तीन चार घण्टों में छः सात रुपये आ जाते थे और सब खर्च निकालकर तीन चार रुपये बच रहते थे।

इन चार महीनों की तपस्या ने रमा की भोग-लालसा को और भी प्रचण्ड कर दिया। जब तक हाथ में रुपये न थे, वह मजबूर था। रुपये आते ही सैर-सपाटे की धुन सवार हो गई। सिनेमा की याद भी आयी।

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