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होती है। सैकड़ों आदमी जमा हो गये। देवीदीन इसी समय अफीम लेकर लोट आ रहा था, जमाव देखकर वह भी आ गया। देखा कि तीन कांसटेवल रमानाथ को घसीटे लिये जा रहे हैं। आगे बढ़कर बोला- हैं हैं, जमादार, यह क्या करते हो? यह पंडित तो हमारे मिहमान हैं, इन्हें कहाँ पकड़े लिये जाते हो?

तीनों कांसटेबल देवीदीन से परिचित थे, रुक गये। एक ने कहा—— तुम्हारे मिहमान है यह ? कब से ?

देवीदीन ने मन में हिसाब लगा कर कहा——चार महीने से कुछ ज्यादा हुए होंगे। मुझे प्रयाग में मिल गये। रहनेवाले भी वहाँ के हैं। मेरे साथ ही तो आये थे।

मुसलमान सिपाही ने मन में प्रसन्न होकर कहा—— इनका नाम क्या है ?

देवीदीन ने सिटपिटाकर कहा——नाम इन्होंने बताया न होगा?

सिपाहियों का सन्देह दृढ़ हो गया। पांडे ने आँखें निकालकर कहा——जान परत है, तुमहे मिले हो, नाँव काहे नहीं वताबत हो इनका?

देवीदीन ने साधारहीन साहस के भाव से कहा—— मुझसे रोब न जमाना पांडे, समझे ! यहाँ धमकिया में नहीं आने के !

मुसलमान सिपाही ने मानों मध्यस्थ बनकर कहा——बूढ़े बाबा, तुम तो ख्वाहमख्या बिगड़ रहे हो। इनका नाम क्यों नहीं बतला देते ?

देवीदीन ने कातर नेत्रों से रमा की ओर देखकर कहा——हम लोग तो रमानाथ कहते हैं। असली नाम यही है या कुछ और, यह हम नहीं जानते।

पाँडे ने आँखे निकालकर हथेली को सामने करके कहा——बोलो पण्डित जी, क्या नाम है तुम्हारा ? रमानाथ या हीरालाल ? या दोनों एक घर का एक ससुराल का?

तीसरे सिपाही ने दर्शकों को सम्बोधित करके कहा——नौव है रमानाथ, बतावत है हीरालाल। सबूत हुइ गया। दर्शकों में कानाफूसी होने लगी शुबहे की बात तो है।

'साफ़ है, नाम और पता दोनों गलत बता दिया।'

एक मारवाड़ी सज्जन बोले——उचक्को सी है।

एक मौलवी साहब ने कहा——कोई इश्तिहारी मुलजिम है।

ग़बन
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