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जनता को अपने साथ देखकर सिपाहियों को और भी जोर हो गया। रमा को भी अब उनके साथ चुपचाप चले जाने ही में अपनी कुशल दिखायी दी। इस तरह सिर झुका लिया, मानो उसे इसकी विल्कुल परवा नहीं है कि लाठी पड़ती है या तलबार। इतना अपमानित वह कभी न हुआ था। जेल की कठोरतम यातना भी इतनी ग्लानि न उत्पन्न करती।

थोड़ी देर में पुलिस स्टेशन दिखायी दिया। दर्शकों की भीड़ बहुत कम हो गयी थी। रमा ने एक बार उनकी ओर लज्जित आशा के भाव से ताका। देवीदीन का पता न था ! रमा के मुँह से एक लम्बी साँस निकल गयी। इस विपत्ति में क्या यह सहारा भी हाथ से निकल गया ?

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पुलिस स्टेशन के दफ्तर में इस समय एक बड़ी मेज के सामने चार आदमी बैठे हुए थे। एक दारोगा थे, गोरे, शौकीन, जिनकी बड़ी-बड़ी आँखों में कोमलता की झलक थी। उनकी बगल में नायब दारोगा थे। यह सिख केशे, बहुत ही हँसमुख. सजीवता के पुतले, गेहुँना रंग, सुडौल, सुगठित शरीर, सिर पर केश थे, हाथ में कड़ा, पर सिगार से परहेज न करते थे। मेज की दूसरी तरफ इन्सपेक्टर और डिप्टी सुपरिटेंडेंट बैठे हुए थे। इन्पेक्टर अधेड़, साँवला आदमी था, कौड़ी की-सी आँखे, फूले हुए गाल और ठिगना कद। डिप्टी सुपरिटेंडेंट लम्बा छरहा जबान' था, बहुत ही विचारशील और अल्पभाषी। इसकी लम्बी नाक और ऊँचा मस्तक कुलीनता के साक्षी थे।

डिप्टी ने सिगार का कश लेकर कहा——बाहरी गवाही से काम नहीं चलने सकेगा। इसमें से किसी को 'अप्रवर बनाना होगा। और कोई 'माल्टरनेटिव' नहीं है।  

इन्सपेक्टर ने दारोगा की ओर देखकर कहा——हम लोगों ने कोई बात उठा तो नहीं रखी, हलफ से कहता हूँ। सभी तरह के लालच देकर हार गये। सभी ने ऐसी गुट कर रखी है कि कोई टूटता ही नहीं। हमने बाहर के गवाहों को भी आजमाया; पर सब कानों पर हाथ रखते हैं।

डिप्टी——उस मारवाड़ी को फिर आजमाने होगा। उसके बाप को बुलाकर खूब धमकाइए। शायद उसका कुछ दबाव पड़े।

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