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दयानाथ- हमने तो दीनदयाल से यह कभी न कहा था कि हम लखपती हैं।

रमा - तो आपने यही कब कहा था कि हम उभार गहने लाये है और दो-चार दिन में लौटा देंगे? आखिर यह सारा स्वांग अपनी धाक बैठाने के लिये ही किया था या कुछ और।

दया- तो फिर किसी दूसरे बहाने से मांगना पड़ेगा ! बिना मांगे काम नहीं चल सकता। कल या तो रुपये देने पड़ेंगे, या गहने लौटाने पड़ेंगे। और कोई राह नहीं।

रमानाथ ने कोई जवाब न दिया। जागेश्वरो बोली-और कौन-सा बहाना किया जायगा ? अगर कहा जाय, किसी को मंगनी देना है तो शायद वह देगी नहीं। देगी भी तो दो-चार दिन में लौटायेंगे कैसे ?

दयानाथ को एक उपाय सूझा। बोले - अगर उन गहनों के बदले मुलम्मे के गहने दिये जाय ? मगर तुरन्त ही उन्हें ज्ञात हो गया कि यह लचर बात है। खुद ही उसका विरोध करते दुए कहा- हाँ बाद को जब मुलम्मा उड़ जायगा तो फिर लज्जित होना पड़ेगा। अक्ल कुछ काम नहीं करती। मुझे तो यही सूझता है, यह सारी स्थिति उसे समझा दी जाय। जरा देर के लिये उसे दुःख तो जरूर होगा; लेकिन आगे के वास्ते रास्ता साफ हो जायगा।

संभव था, जैसा दयानाथ का विचार था, कि जालपा रो-धोकर शान्त हो जायगी; पर रमा की इसमें किरकिरी होती थी। फिर वह मुंह न दिखा सकेगा। जब वह उससे कहेगी, तुम्हारी जमींदारी क्या हो गयी, बैंक के रूपये क्या हुए, तो उसे क्या जबाब देगा ? बिरक्त भाव से बोला--इसमें बेइज्जती के सिवा और कुछ न होगा। आप क्या सराफ़ को दो-चार-छ: महीने नहीं टाल सकते ? आप देना चाहें, तो इतने दिनों में हजार-बारह सौ रुपये बड़ी आसानी से दे सकते हैं।

दयानाथ मे पूछा-कैसे ?

रमा--उसी तरह जैसे आपके और भाई करते है।

दया--रमा, वह मुझसे नहीं हो सकता।

तीनों कुछ देर तक मौन बैठे रहे। दयानाथ ने अपना फैसला सुना दिया। जागेश्वरी और रमा को यह फैसला मंजूर न था। इसलिए अब इस गुत्थी का

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