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सुलझाने का भार उन्हीं दोनों पर था। जागेश्वरी ने भी एक तरह से निश्चय कर लिया था। दयानाथ को भख मारकर अपना नियम तोड़ना पड़ेगा। यह कहाँ की नीति है कि हमारे ऊपर संकट पड़ा हुआ हो, और हम अपने नियमों का राग अलापे जायें ? रमानाथ बुरी तरह फंसा था। वह खूब जानता था कि पिताजी ने जो काम कभी नहीं किया, वह अाज न करेंगे। उन्हें जालपा से गहने-माँगने में कोई संकोच न होगा और यही वह चाहता था। वह पछता रहा था कि मैंने क्यों जालपा से डींगे मारी। अब अपने मुंह को लाली रखने का सारा भार उसी पर था। जालपा की अनुपम छवि ने पहले ही दिन उस पर मोहनी डाल दी थी। वह अपने सौभाग्य पर फूला न समाता था। क्या यह घर ऐसी अनन्य सुन्दरी के योग्य था ? जालपा के पिता पांच रुपये के नौकर थे; पर जालपा ने कभी अपने घर में झाड़ू न लगाई थी, कभी अपनी धोती न छांटी थी, अपना बिछबना न बिछाया था, यहाँ तक कि अपनी धोती की खोंच तक न सी थी। दयानाथ पचास रुपया पाते थे; पर यहाँ केवल चौका-बासन करने के लिए महरी थी। बाकी सारा काम अपने ही हाथों करना पड़ता था। जालपा शहर और देहात का फर्क क्या जाने ? शहर में रहने का उसे कभी अवसर ही न पड़ा था। वह कई बार पति और सास से साश्चर्य पूछ चुकी थी, क्या यहाँ कोई नौकर नहीं है ? जालपा के घर दुध-दही की कमी नहीं थी। यहाँ बच्चों को दूध मयस्सर न था। इन सारे प्रभावों को पति के लिये रमानाय के पास मीठीभीठी बड़ी-बड़ी बातों के सिवा और क्या था। घर का किराया पांच रुपया था, रमानाथ ने पन्द्रह बतलाये थे। लड़कों की शिक्षा का खर्च मुश्किल से दस रुपये था, रमानाथ ने चालीस बतलाये थे। उस समय उसे इसकी जरा भी शंका न थी कि एक दिन सारा भन्डा फूट जागा। मिथ्या दूरदर्शी नहीं होती; लेकिन वह दिन इतनी जल्दी आएगा, यह कौन जानता था ? अगर उसने ये डींगें न मारी होती, तो जागेश्वरी को तरह वह भी सारा भार दयानाय पर छोड़कर निश्चिन्त हो जाता लेकिन इस वक्त वह अपने ही बनाये जाल में फंस गया था। कैसे निकले ?

उसने कितने ही उपाय सोचे, लेकिन कोई ऐसा न था, जो आगे चलकर उसे उलझनों में डाल देता, दलदल में न फंसा देता। एकाएक उसे एक चाल

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