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दारोगा——हर्गिज नहीं। जितने आदमी पकड़े गये हैं, सब पक्के डाकू है।

देवी——यह तो आप कहते है न, हमें क्या मालुम।

दारोगा——हम लोग बेगुनाहों को फंसायेंगे ही क्यों ? यह तो सोचो।

देवी०——यह सब भुगते बैठा हूँ, दारोगाजी। इससे तो यही अच्छा है कि आप इनका चालान कर दें। साल-दो-साल का जेहल ही तो होगा। एक अधरम के डण्ड से बचने के लिए गुनाहों का खुन तो सिर पर न चढ़ेगा।

रमा ने वीरता से कहा——मैंने खूब सोच लिया है दादा, सब कागज देख लिये हैं, इसमें कोई बेगुनाह नहीं है।

देवीदीन ने उदास होकर कहा——होगा भाई। जान भी तो प्यारी होती

यह कहकर वह पीछे घूम पड़ा। अपने मनोभावों को इससे स्पष्ट रूप में वह प्रकट न कर सकता था।

एकाएक उसे एक बात याद आ गयी। मुड़कर बोला——तुम्हें कुछ रुपयों देता जाऊँ?

रमा ने खिसियाकर कहा——क्या जरूरत है ?

दारोगा——आज से इन्हें यहीं रहना पड़ेगा।

देवीदीन ने कर्कश स्वर में कहा——हुजूर, इतना जानता हूँ। इनकी दाबत होगी, बँगला रहने को मिलेगा, नौकर मिलेंगे, मोटर मिलेगी। यह सव जानता है। कोई बाहर का आदमी इनसे न मिलने आयेगा, न यह अकेले कहीं आ-जा सकेंगे। यह सब देख चुका हूँ।

यह कहता हुआ देवीदीन तेजी से कदम उठाता हुआ चल दिया, मानो यहाँ उनका दम घुट रहा हो। दारोगा ने उसे पुकारा; पर उसने फिर कर न देखा ! उसके मुख पर पराभूत वेदना छायी हुई थी ! जग्गो से पूछा——भैया नहीं आ रहे हैं ?

देवीदीन ने सड़क की ओर ताकतें हुए कहा——भैया अब नहीं आयेंगे। जब अपने ही अपने न हुए तो वेगाने तो बेगाने है ही। वह चला गया। बुढ़िया भी पीछे-पीछे भुनभुनाती चली।

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रुदन में कितना उल्लास, कितनी शान्ति, कितना बल है ! जो कभी

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