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एकांत में बैठकर, किसी को स्मति, किसी के वियोग में सिसक -सिसक और बिलख-बिलख कर नहीं रोया, वह जीवन के ऐसे सुख से वंचित है, जिस पर सैकड़ों हंसियां न्योछावर हैं ! उस मीठी वेदना का आनन्द उन्ही से पूछो, जिन्होंने यह सौभाग्य प्राप्त किया है। हँसी के बाद मन खिन्न हो जाता है, आत्मा क्षुब्ध हो जाती है, मानो हम थक गये हों, पराभूत हो गये हों। रुदन के पश्चात् एक नवीन स्फूर्ति, एक नवीन जीवन, एक नवीन उत्साह का अनुभव होता है। जालपा के पास 'प्रजा-मित्र कार्यालय का पत्र पहुँचा, तो उसे पड़कर वह रो पड़ी। पत्र एक हाथ में लिये, दूसरे हाथ से चौखट पकड़े, वह खूब रोयी। क्या सोचकर रोयी, यह कौन कह सकता है ? कदाचित् अपने उपाय की इस आशातीत सफलता ने उसकी आत्मा को विह्वल कर दिया, आनन्द की उस गहराई पर पहुंचा दिया, जहां पानी है या उस ऊँचाई पर जहाँ उषा हिम बन जाती है। आज छ: महीने के बाद यह सुख-संवाद मिला। इतने दिनों वह छलगयी आशा और कठोर दुराशा का खिलौना बनी रही। वाह ! कितनी बार उसके मन में तरंग उठी कि इस जीवन का क्यों न अंत कर दूँ ! कहीं मैंने सचमुच प्राण त्याग दिये होते, तो उनके दर्शन भी न पाती ! पर उनका हिया कितना कठोर हैं। छः महीने से वहाँ बैठे है, एक पत्र भी नहीं लिखा, खबर तक नहीं ली। आखिर यह न समझ लिया होगा, कि बहुत होगा रो-रोकर मर जायगी। उन्होंने मेरी परवा ही न की! दस-बीस रुपये तो आदमी यार-दोस्तों पर भी खर्च कर देता है। वह प्रेम नहीं है। प्रेम हृदय की वस्तु है, रुपये की नहीं। जब तक रमा का कुछ पता न था, जालपा सारा इलजाम अपने सिर पर रखती थी; पर आज उनका पता पाते ही उसका मन अकस्मात् कठोर हो गया। तरह-तरह के शिकवे पैदा होने लगे। वहाँ क्या समझकर बैठे हैं ? इसीलिए तो कि वह स्वाधीन है, आजाद है, किसी का दिया नहीं खाते। इसी तरह मैं कहीं बिना कहेसूने चली जाती, तो वह मेरे साथ किस तरह पेश आते ? शायद तलवार लेकर गर्दन पर सवार हो जाते या जिन्दगी भर मुँँह न देखते। बही-खड़ेखड़े जालपा ने मन-ही-मन शिकायतों का दफ्तर खोल दिया।

रमेश बाबू ने द्वार पर पुकारा——गोपी, गोपी, जरा इधर आना।

मुंशीजी ने अपने कमरे में पड़े-पड़े कराहकर कहा——कौन है भाई,

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