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कमरे में आ जाओ। अरे! आप हैं रमेश बाबू ! बाबूजी, मैं तो मरकर जिया हूँ। बस, यही समझिये कि नयी जिन्दगी हुई। कोई आशा न थी। कोई आगे न कोई पीछे दोनों लौंडे आबारा है, मरूँ या जीऊँ, उनसे मतलब नहीं, उनकी माँ को मेरी सूरत देखते डर लगता है। बस, बेचारी बहू, ने मेरी जान बचायी। वह न होती, तो अब तक चल बसा होता !

रमेश बाबू ने कृत्रिम समवेदना दिखाते हुए कहा——आप इतने बीमार हो गये और मुझे खबर तक न हुई ! मेरे यहाँ रहते आपको इतना कष्ट हुआ ! बहू ने मुझे एक पुरजा न लिख दिया। छुट्टी लेनी पड़ी होगी ?

मुंशीजी——छट्टी के लिए दरख्वास्त तो भेज दी थी; मगर साहब, मैंने डाक्टरी सार्टीफिकेट नहीं भेजी। सोलह रुपये किसके घर से लाता। एक दिन सिविल सर्जन के पास गया; मगर उन्होंने चिट्ठी लिखने से इन्कार किया। आप तो जानते ही हैं, वह बिना फीस लिये बात नहीं करते। मैं चला आया और दरख्वास्त भेज दी। मालूम नहीं, मंजूर हुई या नहीं। यह तो डाक्टरों का हाल है। देख रहे हैं, कि आदमी मर रहा है; पर बिना भेंट लिये कदम न उठायेंगे !

रमेश बाबू ने चिन्तित होकर कहा——यह तो आपने बड़ी बुरी खबर सुनायी। अगर आपकी छुट्टी नामंजूर हुई तो क्या होगा ?

मंशीजी ने माथा ठोंककर कहा——होगा क्या, घर बैठ रहूँगा। साहब पूछेंगे तो साफ़ कह दूँगा, मैं सर्जन के पास गया था, उसने चिट्टी नहीं दी। आखिर इन्हें क्यों सरकार ने नौकर रखा है। महज कुरसी की शोभा बढ़ाने के लिए ? मुझे डिसमिस हो जाना मंजूर है; पर सार्टीफिकेट न दूंगा। लौंडे गायब हैं। आपके लिए पान तक लानेवाला कोई नहीं। क्या करूँ

रमेश ने मुसकराकर कहा——मेरे लिए आप तरद्दुद न करें। मैं आज पान खाने नहीं, भर-पेट मिठाई खाने आया हूँ। (जालपा को पुकारकर), बहुजी, तुम्हारे लिए खुशखबरी लाया हूँ। मिठाई मँगवा लो।

जालपा ने पान की तश्तरी उनके सामने रखकर कहा——पहले वह खबर सुनाइए। शायद आप जिस खबर को नयी समझ रहे हों, वह पुरानी हो गयी हो!

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