पृष्ठ:ग़बन.pdf/२३४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।


रमेश——जी, कहीं हो न! रमानाथ का पता चल गया। कलकत्ते में है।

जालपा——मुझे पहले ही मालूम हो चुका है। मुंशीजी झपटकर उठ बैठे। उनका ज्वर मानो भागकर उत्सुकता की आड़ में जा छिपा। रमेश का हाथ पकड़कर बोले-मालूम हो गया कलकत्ते में हैं ? कोई खत आया था ?

रमेश——खत नहीं था, एक पुलिस इंक्वायरी थी। मैंने कह दिया, उन पर किसी तरह का इल्जाम नहीं है। तुम्हें कैसे मालूम हुआ बहूजी?

जालपा ने अपनी स्कीम बयान की। 'प्रजा-मित्र' कार्यालय का पत्र भी दिखाया। पत्र के साथ रुपयों की एक रसीद थी जिस पर रमा का हस्ताक्षर था।

रमेश——दस्तखत तो 'रमा बाबू का है, बिल्कुल साफ ! धोखा हो ही नहीं सकता। मान गया बहूजो तुम्हें। वह, क्या हिकमत निकाली है ! हम सबके कान काट लिये। किसी को न सूझी। अब सोचते है, तो मालूम होता है, कितनी आसान बात थी। किसी को जाना चाहिये, जो बचा को पकड़कर घसीट लाये।

यही बातचीत हो रही थी कि रतन आ पहुंची——जालपा उसे देखते ही वहां से निकली और उसके गले से लिपटकर बोली-बहन, कलकत्ते से पत्र आ गया है। वहीं है।

रतन——मेरे सिर की कसम ?

जालपा——हां, सच कहती हूँ। खत देखो न !

रतन——तो तुम आज ही चली जाओ।

जालपा——यही तो मैं भी सोच रही हूँ। तुम चलोगी?

रतन——चलने को तो में तैयार है। लेकिन अकेला घर किस पर छोड़। बहन. मुझे मणिभूषरण पर कुछ शुबहा होने लगा है। उसकी नियत अच्छी नहीं मालूम होती। बैंक में बीस हजार रुपये से कम न थे। सब न जाने कहाँ उड़ा दिये। कहता है, क्रिया कर्म में खर्च हो गये। हिसाब मांगती हूँ, तो आँखे दिखाता है। दफ्तर की कुंजी अपने पास रखे हुए है। मांगती हूँ, तो टाल जाता है। मेरे साथ कोई कानूनी चाल चल रहा है। डरती हूँ, मैं

ग़बन
२२९