पृष्ठ:ग़बन.pdf/२३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

उधर जाऊँ इधर यह सब-कुछ ले-देकर चलता बने। बँगले के ग्राहक आ रहे हैं। मैं भी सोचती हूँ, गाँव में जाकर शांति से पड़ी रहूँ। बँगला बिक जायेगा तो नकद रुपये हाथ आ जायँगे ! मैं न रहूँगी, तो शायद ये रुपये मुझे देखने को भी न मिलें। गोपी को साथ लेकर आज ही चली जाओ। रुपये का इन्तजाम मैं कर दूँँगी।

जालपा——गोपीनाथ तो शायद न जा सकें। दादा की दवा-दारू के लिए भी तो कोई चाहिये।

रतन——वह मैं कर दूंगी। मैं रोज़ सबेरे या जाऊँगी और दवा देकर चली जाऊँगी। शाम को भी एक बार देख जाया करूँगी !

जालपा ने मुस्कुराकर कहा——और दिन भर उनके पास बैठा कौन रहेगा?

रतन——मैं थोड़ी देर बैठी भी रहा करूँगी; मगर तुम आज ही जाओ। बेचारे वहाँ न जाने किस दशा में होंगे। तो यही तय रही न ?

रतन मुंशीजी के कमरे में गयी, तो रमेश बाबू उठकर खड़े हो गये और बोले——आइए देवीजी, रमा बाबू का पता चल गया।

रतन——इसमें आधा श्रेय मेरा है।

रमेश——आपकी सलाह से तो हुआ ही होगा। अब उन्हें यहाँ लाने की फ़िक्र करनी है।

रतन——जालपा चली जायें और पकड़ लायें। गोपी को साथ लेती जायें। आपको इसमें कोई आपत्ति तो नहीं है, दादाजी ?

मुंशीजी को आपत्ति तो थी, उनका बस चलता तो इस अवसर पर दस-पांच आदमियों को और जमा कर लेते; फिर घर के आदमियों के चले जाने पर क्यों आपत्ति न होती। मगर समस्या ऐसी आ पड़ी थी, कि कुछ बोल न सके।

गोपी कलकत्ते. की सैर का ऐसा अच्छा अवसर पाकर क्यों न खुश होता। विश्वम्भर दिल में ऐंठकर रह गया। विधाता ने उसे छोटा में बनाया होता, तो आज उसकी यह हक तलफ़ी न होती। गोपी ऐसे कहाँ के बड़े होशियार हैं, जहाँ जाते हैं कोई-न-कोई चीज खो आते हैं। हाँ, मुझसे बड़े हैं। इस दैवी विधान ने उसे मजबूर कर दिया।

२३०
ग़बन