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शून्य हो गयी हो। किसी बड़ी परीक्षा के पहले हम मौन हो जाते हैं, हमारी सारी शक्तियाँँ उस संग्राम की तैयारी में लग जाती हैं।

रतन ने गोपी से कहा——होशियार रहना।

गोपी इधर कई महीनों से कसरत करता था। चलता तो मोढे और छाती को देखा करता। देखनेवालों को तो वह ज्यों-का-त्यों मालूम होता है. पर अपनी नजर में वह कुछ और हो गया था। शायद उसे आश्चर्य होता था, कि उसे आते देखकर क्यों लोग रास्ते से नहीं हट जाते, क्यों उसके डील-डौल से भयभीत नहीं हो जाते। अकड़कर बोला——किसी ने जरा भी ची-चपड़ की तो हड्डी तोड़ दूँँगा।

रतन मुसकराई और बोली——यह तो मुझे मालूम है। सो मत जाना।

गोपी——पलक तक तो झपकेगी नहीं। मजाल है, नींद आ जाय !

गाड़ी आ गयी। गोपी ने एक डिब्बे में घुसकर कब्जा जमाया ! जालपा की आँखों में आँसू भरे हुए थे। बोली——बहन, आशीर्वाद दो कि उन्हें लेकर कुशल से लौट आऊँ।

इस समय उसका दुर्बल मन कोई आश्रय, कोई सहारा, कोई बल ढूँढ़ रहा था और आशीर्वाद और प्रार्थना के सिवा यह बल उसे और कौन प्रदान करता। यही बल और शान्ति का वह अक्षय भण्डार है जो किसी को निराश नहीं करता, जो सबकी बांह पकड़ता है, सबका बड़ा पार लगाता है।

इंजिन ने सीटो दी। दोनों सहेलियाँ गले मिली। जालपा गाड़ी में बैठी।

रतन ने कहा——जाते-ही-जाते खत भेजना।

जालपा ने सिर हिलाया !

'अगर मेरी जरूरत मालूम हो, तो तुरन्त लिखना। मैं सब-कुछ छोड़कर चली आऊँगी।

जालपा ने सिर हिला दिया। 'रास्ते में रोना मत।'

जालपा हँस पड़ी। गाड़ी चल दी।

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देवीदीन ने चाय की दुकान उसी दिन से बन्द कर दी थी; और दिन-भर उस अदालत की खाक छानता फिरता था जिसमें डकैती का मुकदमा पेश

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