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था और रमानाथ को शहादत हो रही थी। तीन दिन,रमा की शहादत बराबर होती रही और तीनों दिन देवीदीन ने न कुछ खाया और न सोया। आज भी उसने घर आते-ही-आते कुरता उतार दिया और एक पंखिया लेकर झलने लगा। फागुन लग गया था और कुछ कुछ गर्मी शुरू हो गई थी; पर इतनी गर्मी न थी कि पसीना बहे या पंखे की जरूरत हो। अफ़सर लोग तो जाड़ों के कपड़े पहने हुए थे; लेकिन देवीदीन पसीने में तर था। उसका चेहरा, जिस पर निष्कपट बुढ़ापा हँसता रहता था, खिसियाया हुआ था, मानो बेगार से लौटा हो!

जग्गो ने लोटे में पानी लाकर रख दिया और बोली-चिलम रख दूं? देवीदीन की आज तीन दिन से यह खातिर हो रही थी। इसके पहले बुढ़िया कभी चिलम रखने को न पूछती थी। देवीदीन इसका मतलब समझता था। बुढ़िया को सदय नेत्रों से देखकर बोला-नहीं, रहने दो, चिलम न पीऊँगा।

'तो मुंह-हाथ तो धो लो, गर्द पड़ी हुई है।' 'धो लूँगा, जल्दी क्या है !' बुढ़िया आज का हाल जानने को उत्सुक थी; पर डर रही थी, कहीं देवीदीन झुंझला न पड़े। वह उसकी थकान मिटा देना चाहती थी, जिससे देवीदीन प्रसन्न होकर आप-ही-आप सारा वृत्तान्त कह चले।

'तो कुछ जलपान कर लो। दोपहर को भी तो कुछ नहीं खाया था। मिठाई लाऊँ ? लाओ, पंखी मुझे दे दो।'

देवीदीन ने पंखिया दे दी। बुढ़िया झलने लगी। दो-तीन मिनट आँखे बन्द करके बैठे रहने के बाद देवीदीन ने कहा—आज भैया की गवाही खतम हो गयी।

बुढ़िया का हाथ रुक गया। बोली-तो कल से घर आ जायँगे? देवी०-अभी नहीं छुट्टी मिली जाती। यही बयान दिवानी में देना पड़ेगा। और अब वह यहाँ आने ही क्यों लगे। कोई अच्छी जगह मिल जायगी, घोड़े पर चढ़े-चढ़े घूमेंगे ! मगर है बड़ा पक्का मतलबी। पन्द्रह बेगुनाहों को फंसा दिया। पाँच-छ: को तो फांसी हो जायगी, औरों को दस-दस बारह-बारह साल की सजा मिली रखी है। इसी के बयान से मुकदमा साबित हो गया। कोई कितनी ही जिरह करे, क्या मतलब, जो जरा भी

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