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दिन भर अम्मा-अम्मा करते रहते थे। दूकान पर सभी तरह के लोग आते थे, मर्द भी औरत भी। क्या मजाल, कि किसी की ओर आंख उठाकर देखा हो।

देवी॰--कोई बुराई न थी। मैंने तो ऐसा लड़का ही नहीं देखा। उसी धोखे में आ गये।

जालपा ने एक मिनट सोचने के बाद कहा-क्या उनका बयान हो गया?

'हां, तीन दिन बराबर होता रहा। आज ख़त्म हो गया।'

जालपा ने उद्विग्न होकर कहा--तो अब कुछ नहीं हो सकता? मैं उनसे मिल सकती हूँ?

देवीदीन जालपा के इस प्रश्न पर मुस्कुरा पड़ा। बोला--हां और क्या! जिसमें जाकर भण्डाफोड़ कर दो। सारा खेल बिगाड़ दो! पुलिस ऐसी गधी नहीं है। आजकल कोई भी उनसे मिलने नहीं पाता। कड़ा पहरा रहता है।

इस प्रश्न पर इस समय और कोई बातचीत न हो सकती थी। इस गुत्थी को सुलझाना आसान न था। जालपा ने गोपी को बुलाया। वह छज्जे पर खड़ा सड़क का तमाशा देख रहा था। ऐसा शरमा रहा था, मानों ससुराल आया हो, धीरे-धीरे आकर खड़ा हो गया।

जालपा ने कहा--मुंह-हाथ धोकर कुछ खा तो लो। दही तो तुम्हें बहुत अच्छा लगता है।

गोपी लजाकर फिर बाहर चला गया।

देवीदीन ने मुसकराकर कहा--हमारे सामने न खायेंगे। हम दोनों चल जाते हैं। तुम्हें जिस चीज की जरूरत हो, हमसे कह देना, बहूजी। तुम्हारा ही घर है। भैया को तो हम अपना ही समझते थे। और हमारे कौन बैठा हुआ है!

जग्गो ने गर्व से कहा--वह तो मेरे हाथ का बनाया खा लेते थे जरूर। छू तो नहीं गया था!

जालपा ने मुसकराकर कहा--अब तुम्हें भोजन न बनाना पड़ेगा माजी, मैं बना दिया करूंगी।

जग्गो ने आपत्ति की--हमारी बिरादरी में दूसरों के हाथ का खाना मना है बहू। अब चार दिन के लिए बिरादरी में नक्कू क्यों बनूँ।

ग़बन
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