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जरा और सँवेरा हुआ, तो जालपा ने देवीदीन को साथ लिया और रमानाथ का बंगला देखने चली। एक पत्र लिखकर जेब में रख लिया था। बार-बार देवीदीन से पूछती, अब कितनी दूर है ? अच्छा ! अभी इतनी ही दूर और! वहाँ हाते में रोशनी तो होगी हो। उसके दिल में लहरे-सी उठने लगीं। रमा अकेले टहलते हुए मिल जायें, तो क्या पूछना। रूमाल में बांधकर खत उनके सामने फेंक दूॅ। उनकी सूरत बदल गयी होगी।

सहसा उसे एक शंका हो गयी——कहीं वह पत्र पढ़कर भी अपना बयान न बदलें, तब क्या होगा?कौन जाने अब मेरी याद भी उन्हें है या नहीं। कहीं मुझे देखकर वह मुंह फेर लें तो इस शंका से वह सहम उठी। देवीदीन से बोली—क्यों दादा, वह कभी घर की चर्चा करते थे?

देवीदीन ने सिर हिलाकर कहा——कभी नहीं। मुझसे तो कभी नहीं की। उदास बहुत रहते थे।

इन शब्दों ने जालपा की शंका को और भी सजीव कर दिया। शहर की धनी बस्ती से ये लोग दूर निकल आये थे। चारों ओर सन्नाटा था। दिन भर वेग से चलने के बाद इस समय पवन भी विश्राम कर रहा था। सड़क के किनारे के वृक्ष और मैदान चन्द्रमा के मन्द प्रकाश में हतोत्साह, निर्जीव से मालूम होते थे। जालपा को ऐसा आभास होने लगा कि उसके प्रयास का कोई फल नहीं है, उसकी यात्रा का कोई लक्ष्य नहीं है। इस अनन्त मार्ग में उसकी दशा उस अनाथ की-सी है, जो मुट्ठी भर अन्न के लिए द्वार-द्वार फिरता है। वह जानता है, अगले द्वार पर उसे अन्न न मिलेगी, गालियाँ ही मिलेंगी, फिर भी वह हाथ फैलाता है, बढ़ती मनाता है। उसे आशा का अवलम्ब नहीं, निराशा ही का अवलम्ब है।

एकाएक सड़क के दाहिनी तरफ बिजली का प्रकाश दिखाई दिया।

देवीदीन ने एक बँगले की ओर उंगली उठाकर कहा——यही उनका बँगला है।

जालपा ने डरते-डरते उधर देखा, मगर बिल्कुल सन्नाटा छाया हुआ था। कोई आदमी न था। फाटक पर ताला पड़ा हुआ था।

जालपा बोली——यहाँ तो कोई नहीं है।

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